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________________ १२६ प्रकृतिसमुत्कीर्तन भावार्थ-जिस शरीर विर्षे हाड की सन्धिहु विष कील तो न हो, परन्तु कोल दईसी होय, अतिदृढ़ होय सो कोलकनाम संहनन कहिए है। आगे फाटकसंहनन कहे हैं जस्स कम्मस्स उदये अण्णोण्णमसंपत्तहहसंधीओ। णरसिरबंधाणि हवे तं खु असंपत्तसेवढें ॥२॥ यस्य कर्मण उदये अन्योन्यं असम्प्राप्तहडुसन्धयो भवन्ति, जिस कर्मके उदय परस्पर आनि मिली हाडहुकी सन्धि होय नर-शिराबद्धाः नर कहिए नले सिरा कहिए नाडी तिनकरि बंधो होय हाडकी सन्धि तत् खु असम्प्राप्तामृपाटिकम् , सो प्रकट असम्प्राप्तामृपाटिक कहिए। भावार्थ-जिस शरीर विर्षे हाडहुकी सन्धि ते मिली न होय, सब हाड जुदे जुदे होहि, अरु नले नाडी इनकरि दृढ़ बंधे होंय सो फाटकशरीरसंहनन कहिए । आगे इन शरीरहुतें कौन-कौन गति होय सो कहै हैं सेवट्टेण य गम्मइ आदीदो चदुसु कप्पजुगलो त्ति । तत्तो दुजुगलजुगले कीलियणारायणद्धो त्ति ॥३॥ सपाटि केन आदितः चतुःकल्पयुगलपर्यन्तं गम्यते । फाटकसंहननकरि आदितें लेकरि चार स्वर्गहुके युगपर्यन्त जाइए हैं। ततस्तु द्वियुगले कीलकनाराचाभ्याम् , तिसतें ऊपर दोय . युगल अरु दोय युगलपर्यन्त कीलक अरु अर्धनाराचकरि जाइए यही क्रमकरि । भावार्थ-फाटकसंहननवालो जो बहुत शुभ क्रिया करे तो पहलेतें लेकर आठवें स्वर्गताई जाय । कीलकसंहननवालो पहलेतें बारहवें स्वर्गताई जाय । अरु अर्धनाराचवालो पहलेतें लेकरि सोलहवें स्वर्गताई जाय । गेविजाणुदिसाणुत्तरवासीसु जंति ते णियमा । तिदुगेगे संहडणे णारायणमादिगे कमसो ॥४॥ नाराचादिकाः त्रिद्विकैकसंहननाः, जो नाराचादिक तीन दोय एक संहनन हैं, ते क्रमतः प्रैवेयकानुदिशानुत्तरवासिषु नियमात् यान्ति, ते अनुक्रमते नव |वेयक, नव अनुदिश पंच अनुत्तरविमानहु विर्षे निश्चयकरि जाय हैं। भावार्थ-नाराच, वज्रनाराच अरु वर्षभनाराच इन तीनों संहननवाले जीव शुभ क्रियातें पहले स्वर्ग लेकरि नव प्रैवेयक ताई जाय । वज्रनाराच अरु वर्षभनाराच इन दोनों संहननवालो जीव नव अनुदिश विमानताई जाय । वनवृषभनाराचसंहननवालो जीव पंच अनुत्तरविमान अरु मोक्षपर्यन्त ताई जाय है । सण्णी छस्संहडणो वच्चइ मेघ तदो परं चावि । सेवट्टादीरहिदो पण-पण-चदुरेगसंहडणो ॥८॥ ___षटसंहननः संज्ञी मेघां ब्रजति, छह संहननसंयुक्त जु है सैनी जीव सो मेघा जु है तीसरो नरक तहाँ ताई जाय । ततः परं चापि, तिसतें आगे सृपाटिकादिरहिताः पञ्च-पञ्च-चतुरेकसंहननाः स्फाटिकादिसंहननते रहित जु है पंच पंच चार एक संहननतें क्रमतें क्रमतें अगले नरक ताई जाहि । फाटकसंहनन वाले जीव पापक्रियातें तीसरे नरक ताई जाहि । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004239
Book TitleKarmprakruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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