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________________ प्रकृतिसमुत्कीन १२७ परमागम कुशलसाधुभिः आङ्गोपाङ्ग त्रिविधं भणितम् परमागम जु है द्वादशाङ्ग सिद्धान्त ति विष प्रवीण जु हैं मुनि तिनहुते आङ्गोपाङ्गनामकर्म तीन प्रकार कहो है सो औदारिकवैक्रियिकाहारकाङ्गोपाङ्गमिति । भावार्थ - जिस कर्मके उदय करि दोय चरण दोय हाथ नितम्ब पीठ उर अरु शिर ये अष्ट अंग होंय, अरु अंगुलि कर्ण नासिका नेत्रादि उपांग होय, सो आंगोपांग नामकर्म कहिए । जातें तीन शरीर में अंग अरु उपांग पाइए । तैजस अरु कार्मण इन दोनोंको अंग अरु उपांग नांहीं, तातें तीन प्रकार होइ । आगे गाथा में आंगोपांग कहे हैं या बाहूय तहा णियंत्र पुट्ठी उरो य सीसो य । अवदु अंगाई देहे सेसा उवंगाई || ७४ ॥ देहे अष्टौ एव अङ्गानि सन्ति । शरीर में आठ ही अंग होते हैं । ते कवन ? नलकौ तथा बाहू नितम्बः पृष्ठः उरः शीर्षः दोनों पांव, दोनों हस्त, नितम्ब, पीठ, छाती, अरु शिर आठ अंग जानहु । तु देहे शेत्राणि उपाङ्गानि । बहुरि इन अष्टांगनिते जु शेष अवर ते अंगुलि, कर्ण, नासिका नेत्रादि ते उपांग कहिए । आगे दो प्रकार विहाय नामकर्म कहे हैं विहायणामं पत्थ अपसत्थगमणमिदि णियमा । वजरसहणारायं वज्जं णाराय णारायं ॥ ७५ ॥ द्विविधं विहायोगतिनामकर्म । विहायोगतिनामकर्म दोय प्रकार है । ते सु कौन-कौन ? प्रशस्ता प्रशस्तगमनमिति नियमात् । प्रशस्तगमन और अप्रशस्तगमन ये दोय प्रकार निश्चयतें जानहु | भावार्थ - जिस कर्मके उदय जीव विहाय कहिए आकाश तिसविषे गमन करे सो विहायोगतिनामकर्म कहिए । जो भली चालि होय सो प्रशस्तगति कहिए । जो बुरी चालि होय सो अप्रशस्तगति कहिए । अथ अर्धगाथा में षट् संहनन कथ्यते - वज्रवृषभनाराच वज्रनाराच नाराच । अगली गाथामें और तीन संहनन कहे हैं Jain Education International. तह अर्द्ध णारायं कीलिय संपत्तपुव्व सेव । इदि संडणं छविमणाइणिहणारिसे भणिदं ॥ ७६ ॥ तथैव अर्धनाराचं कीलकं असम्प्राप्तासृपाटिकासंहननं इति षडूविधं संहननं अनादिनिधनार्षे भणितम् । तथा अर्धनाराच, कीलक और असम्प्राप्ता पाटिकासंहनन । यह छह प्रकार संहनन अनादि अनन्त जु है द्वादशाङ्ग सिद्धान्त तिसविषें कहा है । भावार्थ - जिस कर्म के उदय से छह संहनन होंय, सो संहनन नामकर्म कहिए है । आगे इन षट्संहननको स्वरूप छह गाथामें कहे हैं जस्स कम्मस्स उदए वजमयं अट्ठि रिसह णारायं । तं संहडणं भणियं वञ्जरि सहणारायणाममिदि ॥७७॥ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004239
Book TitleKarmprakruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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