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________________ प्रकृतिसमुत्कीर्त्तन ११३ पुनः वेदनीयं द्विविधम् बहुरि वेदनीयकम दोय प्रकार है । कैसा है वेदनीयकर्म ? मधु लिप्तखङ्गसदृशम् शहदकरि लपेटा जैस खड्ग तैसा है । बहुरि कैसा है ? सातासातविभिन्नम् साताअसाता ऐसे हैं दो भेद जिसके । तु तद्वेदनीयं कर्म जीवस्य सुख-दुःखं ददाति । बहुरि वह वेदनीयकर्म जीवको सुख-दुःख देइ है । मोइ मोहणीयं जह मयिरा अहव कोहवा पुरिसं । तं अडवीस विभिणं गायन्त्रं जिणुवदेसेण || ३१॥ यथा मदिरा पुरुष मोहयति तथा मोहनीयं कर्म पुरुष मोहयति जैसे मदिरा पुरुषको मोहित करै, तैसे ही मोहनीय कर्म पुरुषको मोह है। तथा जैसे मदनकोद्रवा पुरुष मोहयन्ति माचन कोदों मूच्छित कर हैं, उसी प्रकार मोहनीयकर्म जीवको मूच्छित करे है । तत् मोहati कर्म अष्टाविंशतिभेदभिन्नं जिनोपदेशेन ज्ञातव्यम् वह मोहनीयकर्म जिन भगवान् के उपदेशतें अट्ठाईस भेद रूप जानना । आऊ चउप्पयारं णारय- तिरिञ्छ- मणुय-सुरगइगं । डिखित्त पुरिससरिसं जीवे भवधारणसमत्थं ||३२|| नारक-तिर्यङ्-मनुष्य-सुरगतिकं आयुः कर्म चतुःप्रकारम् । नरकगति तिर्यंचगति मनुष्यगति देवगति इनको प्राप्तवारो जो है आयुकर्म जानना । सो आयुकर्म कैसा है ? हलिक्षिप्तपुरुषसदृशम् जैसे हलि खेड़ा हो पुरुष तैसा है । बहुरि कैसा है ? जीवानां भवधारणे समर्थ जीवक पर्याय स्थिति करने को समर्थ है । चित्त व विचित्तं णाणाणामे वित्तणं णामं । याणवी गणियं गइ जाइ - सरीर - आईयं ||३३|| .. गति-जाति-शरीरादिकं त्रिनवतिगणितं नामकर्म विचित्रं भवति । मति जाति शरीरादि प्रकृति करके तिरानवै प्रकार गिना जु है नामकर्म सो नाना प्रकार जानना । किंवत् ? चित्रपटवत् । जैसे अनेक चित्रहूकरि मण्डितवस्त्र तैसा है नामकर्म । नाना नामनिवतर्क पूर्ण गोदं कुलालसरिसं णीचुच्चकुलेसुपायणे दच्छं । घरंजणा करणे कुंभायारो जहा णिउणो ॥ ३४ ॥ Jain Education International. गोत्रं कर्म कुलालसदृशं वर्तते गोत्रकर्म कुम्हारसरीखा है । पुनः कथम्भूतम् ? नीचोचकुलेषु उत्पादने दक्षम् | नीच ऊँच कुलविषै उपजावनेको दक्ष प्रवीण है । घटरञ्जनादिकरणेषु यथा कुम्भकारः घट अरु कूल्हड़ी आदिलेय करिवेविषै जैसे कुंभकार निपुण है, तैसे गोत्रकर्म नीचोचेषु निपुणः नीच ऊँच कुलविषै उपजावनेको निपुण है । जह भंडारि पुरुसो धणं णिवारेह राइणा दिण्णं । तह अंतरायपणगं णिवारयं होइ लद्धीणं ॥ ३५॥ art भाण्डागारिकः पुरुषः राज्ञा दत्तं धनं निवारयति तथा अन्तरायपञ्चकं लब्धीनां निवारकं भवति । जैसे भंडारी पुरुष राजानै दिया जो द्रव्य तिसको नाहीं दे है, तथा तैसे अन्तरायपंचक दानादि पाँच लब्धियोंका निवारण करे है । १५ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004239
Book TitleKarmprakruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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