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________________ प्रकृतिसमुत्कीर्तन १०६ भावार्थ-यह जु है अन्तरायकर्म सो नाम गोत्र वेदनीय इनके अनुसारे बल अरु हीनताको धरै है। जैसे कुछ साता-असाताको उदय होय तिस माफिक अन्तरायकर्म अपने बलको करै है। इसतें अन्तरायकर्म हीन है तिसते अन्तरायकर्म नाम गोत्रके अन्त कह्यौ। अथ नामकर्मके पूर्व आयुकर्म कह्यो, अरु गोत्रकर्मके पूर्व नामकर्म कह्यो, सु किस वास्ते ? सु इसका समाधान कहे हैं आउबलेण अवहिदि भवस्स इदि णाममाउपुव्वं तु । भवमस्सिय णीचुच्चं इदि गोदं णामपुव्वं तु ॥१६॥ आयुर्बलेन भवस्य अवस्थितिः नामकर्मके उदयतें उत्पन्न भये जु हैं गति इन्द्रिय शरीरादि पर्याय तिनकी स्थितिको कारण है एक आयुकर्म इति कृत्वा आयुःपूर्वकं नाम इस वास्ते नामकर्मके पूर्व आयुकर्म कह्यौ । जातें नामकर्मकी स्थिति आयुकर्मके बलकरि है । तु पुनः भवमाश्रित्य नीचत्वम् उच्चत्वं गोत्रम् इति हेतोः नामकर्मपूर्वकं गोत्रकर्म भवति । बहुरि नामके उदय उत्पन्न भई जु है गति तिसको आश्रय लेकरि नीच-ऊँच गोत्र होय है। जो नोचगति होय तो नीचगोत्र होइ, अरु जो ऊँचगति देवगत्यादिक की होय तो ऊंच ही गोत्र होइहै । इस कारणतें गोत्रकर्मके पूर्व नामकर्म कह्यौ । ____ अथ घातियाकर्महुके मध्य मोहनीयकर्मके ऊपर वेदनीय अघातिया कह्यो, सु किस वास्ते ? इसको समाधान कहै हैं घादि व वेयणीयं मोहस्स बलेण घाददे जीवं । इदि घादीणं मज्झे मोहम्सादिम्हि पठिदं तु ॥२०॥ घातिवद्वेदनीयं-घातियासो वेदनीयकर्म है, यद्यपि अघातिया है । काहेते ? मोहस्य बलेन जीवं घातयति-जिसनें मोहनीयकर्म के बलकरि जीवको साता-असाताके निमित्त इन्द्रिय-विषयके बलकरि जीवको घात है। इति हेतोः घातिकर्मणां मध्ये मोहस्य आदौ पठितम्-इस कारणतें वेदनीयकर्म घातियाकर्मनिके मध्य मोहनीयकी आदि पढ़िये है। भावार्थ-यह जु बताई इस मोहकर्मको उदय हेतु बताई साता-असातारूप वेदनीयकर्म बल करै है, जातें रति-अरतिके उदय सुख-दुःख यह जीव मानै है; तातें मोहके अधीन है तिसते घाति यासा कहिए है । इस वास्ते घोतियहुके मध्य मोहनीयके पूर्व यो वेदनीय कर्म कहो। अथ गाथाके ऊपर इन आठ कर्मको पाठक्रम कहैं हैं णाणस्स दंसणस्स य आवरणं वेयणीय मोहणियं । आउग णामं गोदंतरायमिदि पठिदमिदि सिद्धं ॥२१॥ ___ ज्ञानावरण दर्शनावरण वेदनीय मोहनीय आयु नाम गोत्र अन्तराय यह पूर्व ही पढ्या था जो पाठक्रम सो पूर्वोक्त प्रकार करि सिद्ध हुआ। अथ बन्धको स्वरूप कहै हैं जीवपएसेक्कक्के कम्मपएसा हुं अंतपरिहीणा। होति घणनिविडभूओ संबंधो होइ णायव्यो ।।२२।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004239
Book TitleKarmprakruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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