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कर्मकृत
पाठ छूटे स्थल - पत्र संख्या ३०, ४४, ४५ / B, ४७, ४९, ५१ इत्यादि ।
गाथाङ्क १४४-१४५ की पूरी टीका और गा० १४६ की अधिकांश टीका बिलकुल ही छूट गयी है । दोबारा लिखे स्थल - पत्र संख्या १५, २४, ४५ / A इत्यादि ।
पत्र ४९वेंपर तो लेखकसे बहुत गड़बड़ी हुई है । छूटे पाठका कोई भी संकेत न होकर इस ढंग से लिखा गया है मानो वहाँपर कोई गड़बड़ी ही नहीं है । पर वास्तव में इस स्थलपर बहुत आगेका पाठ लिखा गया और यहाँका पाठ छूट गया है। इसी पत्रपर जो संदृष्टियाँ दी हैं, वे भी अशुद्ध हैं और सम्भवतः उन्हें ठीक रूपसे न समझ सकने के कारण ही उक्त गड़बड़ी हुई है । पत्र ५० पर दी गयी संदृष्टि भी अशुद्ध है ।
यह प्रति मूल गाथाओं के अतिरिक्त भ० मल्लिभूषण-सुमतिकीत्ति - विरचित टीकासे समन्वित है । इस टीकाकी जो अन्य प्रति ऐलक सरस्वती भवन ब्यावरसे प्राप्त हुई है, उसके साथ मिलान करनेपर ज्ञात हुआ कि अनेक गाथाओंकी संस्कृत टीका भी संक्षिप्त एवं संदृष्टिविहीन है, जो कि ब्यावर प्रतिमें पायी जाती है ।
प्रतिके अन्त में भिन्न कलमके द्वारा यह वाक्य लिखा हुआ है :
"म० श्रीवादिभूषणस्तत् शिष्य ब्रह्म श्रीनेमिदासस्येदं पुस्तकं || श्री ||"
इस पंक्तिके आधारपर इतना निश्चित रूपसे कहा जा सकता है कि इसके लिखनेका काल ब्रह्मश्रीनेमिदास से पूर्वका है । ये कब हुए, यह अन्वेषणीय है ।
ब प्रति - यह प्रति श्री ऐलक पन्नालाल दि० जैन सरस्वती भवन ब्यावरकी है । इसका र० ज० नं० ९ है और पत्र संख्या ४८ है । आकार १२४५ ॥ इंच है । प्रतिपत्र पंक्ति संख्या ११ और प्रतिपंक्ति अक्षरसंख्या ३७-३८ । प्रतिके अन्त में उसी स्याही किन्तु पतली कलमसे जो प्रशस्ति दी गयी है उससे स्पष्ट है कि यह प्रति वि० सं० १६२७ के कार्तिक कृष्णा ५ के दिन श्रीमधूकपुरके श्रीचन्द्रनाथ चैत्यालय में लिखकर समाप्त हुई है । इसे बलसाढनगर के रहनेवाले सिंहपुराजातीयश्रेष्ठी हांसा और उनकी पत्नी मटकूसे उत्पन्न पुत्री पूतलीबाईने टीकाकारके सहाध्यायी श्री भ० प्रभाचन्द्र के उपदेशसे लिखाकर उन्हींको समर्पित की है। इस व्रत - शील-सम्पन्ना एवं यति-जन-भक्ता बाईने अपने रहनेका मकान भी सम्भवतः उक्त चन्द्रप्रभजिनालयको दे दिया था ।
यह प्रति बहुत शुद्ध है | अक्षर सुवाच्य एवं पडिमात्रामें लिखे हुए हैं। कागज अति जीर्ण-शीर्ण एवं पतला पीले-से रंगको लिये हुए श्वेत है । प्रतिमें यथास्थान जो संदृष्टियां दी हुई हैं, वे भी शुद्ध एवं स्पष्ट हैं ।
प्रतिके अन्त में जो लेखक- प्रशस्ति दी गयी है, वह इस प्रकार है :
“स्वस्ति श्री संवत् १६२७ वर्षे कात्तिकमासे कृष्णपक्षे पञ्चम्यां तिथौ अद्येह श्रीमधूकपुरे श्रीचन्द्रनाथचैत्यालये श्रीमूलसंघे सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे श्रीकुन्दकुन्दान्वये भ० श्रीपद्मनन्दिदेवास्तत्पट्टे भ० श्रीदेवेन्द्रकीर्त्तिदेवास्तत्पट्टे म० श्रीविद्यानन्दिदेवास्तत्पट्टे भ० श्री [म]ल्लिंभूषणास्तत्पट्टे भ० श्री लक्ष्मीचन्द्रास्तत्पट्टे भ० श्रीवीरचन्द्रास्तत्पट्टे भ० श्रीज्ञानभूषणास्तत्पट्टे म० श्रीप्रमाचन्द्रोपदेशात् बलसाढनगरवास्तव्यः सिंहपुराज्ञातीयः धर्मकार्यतत्परः श्रे० हांसा मार्या मटकू तयोः पुत्री यतिजनभक्ता अने [क] व्रतकरणतत्परा जिनालयार्थं दत्तनिजगृहा बाई पूतली तयेमां श्रीकर्मकाण्डटीकां लिखाप्य म० श्रीप्रभाचन्द्रभ्यो दत्ता । चिरं नन्दतु ॥ ( पृ० ८४ )
उक्त प्रशस्तिसे सिद्ध है कि यह प्रति कर्मप्रकृतिके टीकाकार भ० श्रीज्ञानभूषण के शिष्य श्रीप्रभाचन्द्र के लिए लिखा कर समर्पित को गयी है, अतएव यह प्राप्त समस्त प्रतियोंमें प्राचीन होने के साथ-साथ प्रामाणिक एवं महत्त्वपूर्ण है । इसका कारण यह है कि टीकाकारने पंचसंग्रहकी संस्कृत टीका वि० सं० १६२० में पूर्ण की है और यह प्रति १६२७ की लिखी हुई है ।
प्रतिके अन्तिम पत्रकी पीठपर भिन्न कलम और भिन्न स्याहीसे लिखा हुआ है :
" गां० २ पो ६ प्र ५ भ० श्रीजिनचन्द्राणां शिष्य म० श्रीविद्यानन्दिकस्येदं पुस्तकम् ।"
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