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________________ कर्मप्रकृति अज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्याप्तो दर्शनमोहस्य मिथ्या० उ० साग० १००० चारित्रमो. १६ प्र० सा० ५७१ भा० ज्ञा० ५ द. ६ अं०५ असातवे० १ एवं २० उ० सा० ४२८ भा०४ नामप्र० ३६ नीचगो. १ उत्कृ० सा० २८५ भा०४ बध्नाति । एकेन्द्रियस्य-दर्शनमोहस्य सागर. १ चारित्रमोहस्य , ज्ञा० द० वे० अं०,, 3 ना० गो० , ३ द्वीन्द्रियस्य-२५ दर्शनमोहस्य उत्कृष्टस्थितिबन्धः सा० २५ 28 चारित्रमोहस्य सागरो० १४ आ० 3 ७५. ज्ञा० द. वे. अन्त० उ० सा० १० भा०५ ५० नामगोत्रयो. सा. ७ भा०१* स्थिति वाले न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थान और वज्रनाराचसंहननका; १० कोड़ाकोड़ी सागरकी उत्कृष्ट स्थितिवाले समचतुरस्रसंस्थान, वञवृषभनाराचसंहनन, हास्य, रति, उच्चगोत्र, पुरुषवेद, स्थिरषटक और प्रशस्त विहायोगति इन सभी प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध एकेन्द्रियजीवोंके सिद्ध कर लेना चाहिए। यह तो हुआ एकेन्द्रियजीवोंके कर्मोंकी उत्तर प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका निरूपण । इसी प्रकार २५ सागरकी उत्कृष्ट मिथ्यात्व-स्थितिको बाँधनेवाले द्वीन्द्रियजीवोंके; ५० सागरकी उत्कृष्ट मिथ्यात्व-स्थिति के बाँधनेवाले ब्रीन्द्रियजीवोंके; १०० सागरकी उत्कृष्ट मिथ्यात्व-स्थितिके बाँधनेवाले चतुरिन्द्रियजीवोंके तथा १००० सागरकी उत्कृष्ट मिथ्यात्व-स्थिति के बाँधनेवाले असंज्ञी पंचेन्द्रियजीवोंके भी सभी उत्तर प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धको भी ऊपर बतलायी गयी त्रैराशिक विधिसे निकाल लेना चाहिए। संस्कृत टीकामें जो अंक-संदृष्टि दी गयी है, उसमें त्रैराशिक करनेसे जो प्रमाण निकलता है। वह दिया गया है। उसका खुलासा एकेन्द्रियजीवोंका तो ऊपर कर ही आये हैं । शेषका इस प्रकार जानना चाहिए द्वीन्द्रिय पर्याप्तक जीवके दर्शनमोहका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध २५ सागर, चारित्रमोहकी सोलह कषायोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध १४ सागर; ज्ञानावरणकी पाँच, दर्शनावरणकी नौ, अन्तरायकी पाँच और असातावेदनीय इन बीस प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध १०५ सागर, नामकर्मकी ३६ प्रकृतियोंका तथा नीचगोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध ७१ सागर होता है । *ब प्रतौ इयान् पाठोऽधिकःतत्संज्ञी उत्कृष्टेन एकन्द्रियादीनां उत्कृष्टजघन्यौ स्थितिबन्धौ आह । तदुपरि गोम्मटसारोकगाथामाह जदि सत्तरिस्स एत्तियमत्तं किं होदि तीसियादीणं । इदि संपति सेसाणं इगिविगलेस उभय ठिदी॥ - सप्ततिकोटीकोटिसागरोपमोत्कष्टस्थितिकदर्शनमोह - मिथ्यात्वस्य यदि एक सागरोपममात्रं एकन्द्रियो जीवो बध्नाति तदा तीसियादीनां ज्ञानावरणादीनां किं भवति लब्धः ? एकन्द्रियः पर्याप्तः दर्शनमोहनीयस्य सागरोपमं १ उत्कष्टरिथतिबन्धं बध्नाति । चारित्रमोहनीयस्य सागरोपभस्य सप्तभागानां मध्ये चतुरो भागान् बधाति ५ उत्कष्टस्थितिम् । ज्ञानावरणदर्शनावरणवेदनीयान्तरायाणां उत्कृष्टस्थितिबन्धं सागरोपमस्य सप्तभागाः क्रियन्ते तन्मध्ये त्रीन भागान बध्नाति । नामगोत्रयोः उत्कृष्टस्थितिबन्धं सागरोपमस्य सप्तभागानां मध्ये द्वौ भागी बध्नाति । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004239
Book TitleKarmprakruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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