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सम्पादकीय लगभग बीस वर्ष हुए जब मुझे कर्मप्रकृतिकी एक संस्कृतटीका युक्त तथा एक पं० हेमराजजी कृत भाषा टीका युक्त ऐसी दो प्रतियाँ प्राप्त हुई। उन दिनों में कसायपाहुडसुत्तके अनुवादमें व्यस्त था, अतः उसके पश्चात् ही इसे हाथमें लेना उचित समझा। परन्तु इस बीच कसायपाहुडसुत्तके सम्पादनके अतिरिक्त वसुनन्दिश्रावकाचार, जिनसहस्रनाम, पंचसंग्रह और जैनधर्मामृतके सम्पादन करने में व्यस्त रहने से इसे ई० सन् १९६० तक हाथ ही नहीं लगा सका। जब उक्त समस्त ग्रन्थोंके सम्पादनसे निवृत्त हआ तब कर्मप्रकृतिके कार्यको हाथमें लिया और मेरे पास जो प्रति थी, उसके आधारपर उसकी प्रेस कापी मूल और टीका दोनोंकी कर लो। पीछे जयपुर और ब्यावरके शास्त्रभण्डारोंसे इसको और भी प्राचीन प्रतियाँ प्राप्त हुई और उनमें श्री ज्ञानभूषण-सुमतिकोत्ति-रचित टोका भी उपलब्ध हुई। यह टीका पहले प्राप्त टीकासे विस्तृत देखकर उसे भी प्रस्तुत संस्करण में देना उचित समझा और श्रीमान् डॉ० हीरालालजोने पं० हेमराजजीकृत भाषा टीकाके रूपको देखकर उसे भी प्रकाशित करनेकी अनुमति प्रदान की। इस प्रकार प्रस्तुत संस्करणमें तीन टोकाएँ सम्मिलित है
___१. मूलगाथाओं के साथ ज्ञानभूषण-सुमतिकोत्तिकी संस्कृत टीका और उनका मेरे द्वारा किया हुआ हिन्दी अनुवाद । २. अज्ञात आचार्य-द्वारा लिखी गयी संस्कृत टीका । ३. संस्कृत टीका गभित पं० हेमराजकृत भाषा टोका।
श्रीमान् डॉ० आ० ने उपाध्यायका सुझाव था कि इसका मिलान दक्षिण भारतकी प्राचीन ताडपत्रीय प्रतियोंसे अवश्य करा लिया जाये। तदनुसार मैंने श्रीमान पं० के० भुजबली शास्त्रीसे प्रार्थना की और उन्होंने मुडबिद्री के प्राचीन ताडपत्रीय प्रतिसे अपने सहयोगी श्री० पं० देवकुमारजीके साथ मिलान कर पाठ-भेद भेजनेकी कृपा की । पाठ-भेदोंको यथास्थान दे दिया गया और जो उनके सम्बन्धमें विशेष वक्तव्य था, वह प्रस्तावनामें दे दिया है। • अनुवाद या विशेषार्थमें अनावश्यक विस्तार न हो, इस बातका भरपूर ध्यान रखा गया है । साथमें पं० हेमराजकृत भाषा टोका दो ही जा रही है, जिसमें यथास्थान सभी ज्ञातव्य बातोंका स्पष्टीकरण किया ही गया है।
मल गाथाओंके पाठ-भेदों आदिको पादटिप्पणमें हिन्दी अंकोंके तथा टीकागत पाठ-भेदोंको रोमन अंकोंके साथ दिया गया है।
मूल ग्रन्थ कर्मप्रकृतिके रचयिताके बारेमें कुछ विवाद है। कुछ विद्वान् उसे नेमिचन्द्राचार्यकी कृति माननेको तैयार नहीं है, परन्तु जबतक सबल प्रमाणोंसे वह अन्य-रचित सिद्ध नहीं हो जाती तबतक उसे प्रसिद्ध आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती-रचित मानने में कोई आपत्ति भी दृष्टिगोचर नहीं होती। टीकाकारों और प्रतिलिपिकारोंके द्वारा उसे नेमिचन्द्र सिद्धान्ति, नेमिचन्द्र सैद्धान्तिक और सिद्धान्तपरिज्ञानचक्रवर्तीविरचित लिखा हुआ मिलता ही है। इसके पश्चात् भी यदि किन्हीं प्रबल प्रमाणोंसे वह किन्हीं दूसरे ही नेमिचन्द्र-द्वारा रचित सिद्ध हो जायेगी तो मुझे उसे स्वीकार करने में भी कोई आपत्ति नहीं होगी।
श्री ऐलक पन्नालाल दि. जैन सरस्वती भवन ब्यावरको प्रति उसके व्यवस्थापक श्रीमान् पं० पन्नालालजो सोनीसे, तथा जयपुर भण्डारको प्रति उसके मन्त्री श्रीमान् केशरलालजी तथा श्रीमान् डॉ० कस्तूरचन्द्रजी काशलीवाल एम० ए० की कृपासे प्राप्त हुई । तथा ताड़पत्रीय प्रतियोंका मिलान श्रीमान् पं० के० भुजबली • शास्त्री और श्री पं० देवकुमारजीको कृपासे हुआ इसके लिए मैं उक्त सभी महानुभावोंका आभारी हूँ।
ग्रन्थको भारतीय ज्ञानपीठकी मूत्तिदेवी ग्रन्थमालासे प्रकाशनकी स्वीकृति उसके प्रधान सम्पादक
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