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अपरिग्रह से पेट भरने के लिए।
क्या सचमुच पेट भरने के लिए कमाते हैं या पेट को बढ़ाने के लिए। पेट भरने के लिए कमाने वाले बहत कम होते हैं। अधिकतर लोग तो स्वाद के कारण खाते रहते हैं तथा अस्वस्थता को मोल लेते हैं। लोगों को भोजन से कोई मतलब नहीं होता, भात पानी से ही मतलब होता है। जो पेट भरने के लिए खाता है उसे स्वादिष्टता से कोई मतलब नहीं होता। सभा में से खाते हैं, जीने के लिए।
क्या सचमच जीने के खाते हैं या खाने के लिए जीते हैं ? अधिक लोग जीने के लिए नहीं खाते ? खाने के लिए ही जीते हैं। जीने के लिए भी खाने का क्या लाभ ? जी कर धर्म करना हो तो जीना भी सार्थक है। अन्यथा जीने की भी क्या आवश्यकता है। जीने से इतना मोह क्यों है। मर जाएं तो क्या हर्ज है ? क्या हानि है ? हां ! आप के परिवार को कोई हानि हो सकती है। आप को क्या हानि है। मरने वाला उठ कर यह तो कभी देखता नहीं कि मैं मर गया हूं। फिर मरने से डरना क्यों ?
वस्तुतः कमाना खाना तथा जीना मानव की एक आवश्यकता है । इसे यदि परिग्रह में न बदला जाए तो आत्मा को कोई हानि नहीं होती।
चाणक्य नीति में कहा गया है कि समाज में धन का चक्र (circulation)गतिशील रहना चाहिए । जब धन का चक्र एक स्थान पर जमा हो जाता है तो समाज की समस्त व्यवस्था भंग हो जाती है समाज सुचारू रूप से तभी चल सकती है, जब धन आता जाता रहे। धन के आने जाने मात्र से ही हज़ारों लोग अपनी आजीविका कमाते हैं । धन के व्यय करते रहने से समाज ठीक तरह से चलती रहती है।
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