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________________ २८२] अपरिग्रह के दान का फल ५० रुपये जितना भी न मिल पाएगा। . वह महिला निरुत्तर थी। वह सम्भवतः जानती न थी कि भाग्य स्वयं ही बनाया जाता है । यह हानि-बाधा इसी लिए आती है क्योंकि मानव दान पुण्य नहीं करता। धन को यूं ही गंवाने के बदले में उसे किसी सत्कार्य में लगा दिया जाए तो लाखों गुणा लाभ अर्जित किया जा सकता है। दानं भोगो नाश: तिस्रः गतयः भबति वित्तस्य। यो न ददाति न भुङक्ते, तस्य तृतीया गतिर्भवति ॥ धन की तीन गतियां हैं-दान, भोग तथा नाश । जो न देता है न खाता है, उसके धन की तीसरी गति (नाश) हो जाती है। पैसा कमाने के बाद कोई तृप्ति हुई । लाखों कोड़ों कमाना है या इस से भी अधिक । आप सब कमाते हैं । परन्तु खर्च बढ़ रहा है इस लिए ? जरूरत है इस लिए ? परिवार के लिए ? शायद आप के अपने-अपने सब के अनुभव हैं। सभा में से, "अपने बेटों के लिए।" जब जाएंगे तो बेटों को कुछ तो देकर जाएंगे न ? नहीं देकर जाएंगे तो बेटे बाप को याद भी न करेंगे। बाप की बुराइयाँ करेंगे। दे कर जाएंगे तो कम से कम याद तो करेंगे। बहत से लोग बेटों के लिए ही कमाते हैं। क्योंकि बेटे सुखी रहें। उन के संचय का कोई अन्त नहीं है। परन्तु एक कवि ने कहा है पूत कपूत तो क्यों धन संचे, पूत सपूत तो क्यों धन संचै ? बेटे दो प्रकार के होते हैं । सपूत या कपूत । कपूत के लिए धन संचित करने की जरूरत नहीं । सपूत के लिए भी धन इकट्ठा करने की जरूरत नहीं । क्योंकि बेटा कपूत होगा तो आप का Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004233
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashobhadravijay
PublisherVijayvallabh Mission
Publication Year
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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