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ब्रह्मचय
गोस्वामी तुलसीदास जी एक बार पत्नी के मायके चले
सहन न कर.. वहां जा कर
जाने पर विचलित हो उठे । वे विरह वेदना को पाए तो रात्रि में ही चल पड़े ससुराल की ओर ! देखा तो द्वार बंद हो चुके थे । तुलसीदास ने गवाक्ष की ओर देखा तो वहाँ उन्हें एक रज्जु दिखाई दी । वे उस रज्जु के द्वारा गवाक्ष तक पहुंचे तथा कक्ष में प्रविष्ट हुए । पत्नी जागृत हुई, "कौन" ? पूछने पर तुलसी दास ने कहा, "मैं हूं" । "तुम यहाँ रात्रि में आए कैसे ?" "मैं रज्जु के द्वारा आया हूं", पत्नी ने गवाक्ष में देखा तो वहाँ पाया कि वहाँ रज्जु नहीं, सर्प था । वह बोल उठी ।
जितना प्रेम हराम में, उतना हरि से होय । चला जाए वैकुंठ में, पल्ला न पकड़े कोय ॥
अर्थात् तुम यहाँ कितनी बाधाओं, व्यथाओं को भोग कर आए हो । तुम्हें जितना प्रेम हराम (संसार) में है, उतना प्रेम प्रभु से हो जाए तो तुम्हें मोक्ष की प्राप्ति क्यों न हो जाए ?
इस व्यङ्ग्य वाण से तुलसी दास प्रभु के रंग में रंग गए । वे पत्नी को छोड़ कर प्रभु के प्रेम से आलोकित हो उठे ।
वाचस्पति मिश्र का विवाह हो जाने के पश्चात् भी वे ग्रन्थ लेखन में इतने मग्न थे कि उन्हें यह याद ही न रहा कि कोई उन की पत्नी भी है जो सुनहरे सपने हृदय में संजोए प्रतिदिन उन की प्रतीक्षा करती है । एक दिन अनायास ही वे पत्नी को दीपक में तेल पूरते हुए देख कर बोल उठे, "तुम कौन हो ?"
तुरन्त उन्हें स्मरण हो गया कि वे बहुत बड़ा अन्याय कर चुके हैं । यह तो मेरी पत्नी भामती है । इसे कितना ख्याल है मेरे अध्ययन का, जो कि दीपक के बुझ जाने से पूर्व ही प्रतिदिन इस में तेल डाल देती है ।
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