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स्वकीयम्
योग शस्त्र भाग १ आप के समक्ष प्रस्तुत करते हुए अत्यन्त प्रमोद की अनुभूति हो रही है ।
आज से २-३ वर्ष पूर्व मेरे मन में एक विचार उद्भूत हुआ कि विद्वान् तथा वक्ता बन जाने का प्रयोजन क्या हो सकता है ? यद्यपि मैं न कोई विद्वान् हूं, न वक्ता तथापि प्रश्न का समाधान तो अपेक्षणीय था ही । समाधान मिला कि स्व पर कल्याण ही विद्वत्ता तथा उपदेश शक्ति ( वक्तृत्व ) का फल है ।
कुछ श्रमण श्रमणियों ने
विद्वान् तथा वक्ता स्वकल्याण कितना करता है ? यह उस का व्यक्तिगत प्रश्न है परन्तु समाज का कल्याण (परकल्याण) निजी प्रश्न नहीं । अतः परकल्याण की ओर विद्वानों की रुचि हो, यह नैसर्गिक ही है । स्थान-स्थान पर प्रवचनों का, जाहेर प्रवचनों का आयोजन होता है । प्रवचन का श्रोताओं को कब तक स्मरण रह सकता है ? श्रमण संघ के विशाल अध्ययन का लाभ क्या जनता को स्थायी रूप से प्राप्त हो पाता है ? इन्हीं प्रश्नों के उत्तर के रूप में आचार्य श्रीमद् विजयानन्द सूरीश्वर की परम्परा को उत्तरोत्तर आगे बढ़ाया । परहितार्थ अनेक ग्रंथों का निर्माण करना प्रारम्भ किया । शास्त्र सिद्ध तथ्यों को स्वभाषा में, स्वशैली में, स्वचिंतन तथा स्वानुभव से लिखने का कार्य प्रारम्भ किया । वर्तमान में इस नवीन लेखन कला से समाज को अपार लाभ हो रहा है, यह असंदिग्ध है । लेखन की शर्त मात्र इतनी ही होनी चाहिए कि वह सम्यग्दर्शन पोषक हो, विवादों से रहित हो तथा समन्वय का प्रतीक हो ।
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ऐसे साहित्य का प्रकाशन कदापि उचित नहीं हो सकता, जिस के द्वारा जानबूझ कर संघ में कलह तथा विवाद का श्री - गणेश कर दिया जाए ।
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