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प्रकाशक को ओर से
विधि का विधान है कि जहां आवश्यकता होती है, वहां.. आविष्कार भी हो जाता है । समय-समय पर समाज को अनेक युग पुरुषों की आवश्यकता प्रतीत हुई। तो प्रकृति ने भी समय-२ पर हेमचन्द्र, हरिभद्र, यशो विजय, गुरु आत्म, गुरु वल्लभ आदि महापुरुषों को स्वर्ग से पृथ्वी पर अवतीर्ण कर दिया ।
इन युगपुरुषों के कार्यों को पूर्ण करने के लिए उनकी शिष्य प्रशिष्यादि परम्परा प्रयत्न शील रही । परिणाम आप के सन्मुख है कि वर्तमान में जैन धर्म का कितना विस्तृत सांगोपांग साहित्य उपलब्ध है । कुछ मुद्रित है, कुछ हस्त लिखित हैं तथा कुछ शोध के योग्य है ।
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साहित्य प्रकाशन भी एक सामाजिक आवश्यकता है । एक कवि ने कहा था
अंधकार है वहां, जहां आदित्य नहीं । मुर्दा है वह देश, जहां साहित्य नहीं ॥
किसी भी संस्कृति का विनाश तथा विकास उस की साहित्य सम्पदा के विनाश तथा विकास पर ही निर्भर है, जिस धर्म का अपना साहित्य नहीं वह धर्म स्थायी नहीं रह सकता । यही कारण है कि आधुनिक धर्माचार्यों तथा कथित भगवानों ने अपने साहित्य का जाल फैलाना प्रारम्भ कर दिया है। ताकि वे न रहें तो कम से कम उन की संस्कृति तो एक-आधशती तक जीवित रह सके ।
जैन साहित्य अति विस्तृत है, समस्त जैन साहित्य का मुद्रण तो अति कठिन है। एक-एक ग्रंथ पर सैकड़ों टीकाएं भाष्य तथा चूर्णियां हैं । उन सब का पारायण भी कौन कर सकता है ?
वर्तमान में श्रमण संघ तथा गृहस्थों की कुछ अमूल्य रचनाएं देखने में आईं । मन पुकार उठा कि महावीर के शासन
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