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घी, दुध, दही, शेरडीरस तथा सर्वोषधि, आ पांच अमृत गणाय छे, आ पंचामृतनो ते " पाञ्चामृत" नामनो एक अभिषेक करवो, सर्व स्नानो थई पछी वास कर्पूर-चूर्णादिक घसीने प्रतिमाना अंग उपरथी स्निग्धता (चिकास) दूर करवी अने छ निर्मल जलना कलशे करीने “ चक्रे देवेन्द्रराजै" आ काव्य उच्च स्वरे बोलतां आठ अभिषेको करवा |
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अभिषेको थई रह्या पछी अंगलूंछणां करी बिंबने चंदनादिनुं विलेपन करवु, पुष्प चढाववां अने मंगलदीपक तथा आरती आदि करवां ।
प्रथम स्नात्रकार श्रावके जिनमुद्राए उभा रही जल कलशादिकनी अधिवासना करी -
ॐ नमो यः सर्वशरीरावस्थिते महाभूते आगच्छ आगच्छ, जलं गृह्ण गृह्ण स्वाहा ।
आ मंत्रे करी जलभृत कलशांदिकनुं अभिमंत्रण करवुं
ॐ नमो यः सर्वशरीरावस्थिते पृथु पृथु विपृथु गन्धान् गृह्ण गृह्ण स्वाहा ।
आ मंत्रथी गंध, वास, अष्टकवर्ग, सदौषधि, सर्वोषधि, केसर, कर्पूरादिनुं अभिमंत्रण करवुं ।
ॐ नमो यः सर्वतो मेदिनी! पुष्पवति! पुष्पं गृह्ण गृह्ण स्वाहा ।
आ मंत्रथी प्रत्येक स्नात्रमां चढाववानां पुष्पो अभिमंत्रवां ।
ॐ नमो यः सर्वतो बलिं दह दह, महाभूते तेजोधिपते धू धू धूपं गृह्ण गृह्ण स्वाहा ।
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