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________________ उसके बाद क्रमशः मिथ्यात्व के उदय का अनुभव करती हुई आत्मा जब १००० वें समय पर पहुंचती है । तब सम्यग्दर्शन पाने की पूर्ण तैयारी में होती है । अर्थात् मिथ्यात्व के उदय के अन्तिम समय में यानी आत्मा अनिवृतिकरण के चरम समय मे पहुंचती है, तब उसके अध्यवसाय इतने जबरदस्त विशुद्ध बनते है, जिनके कारण सत्ता में पड़े हुए कर्मों के ऊपर कठोर प्रहार करती है, जिससे मिथ्यात्व के छक्के छुटने लगते है और उसका रस खत्म होने लगता है। कई प्रदेश तो नीरस जैसे बन जाते है। कई अर्धशुद्ध बनते हैं, कई अशुद्ध ही रहते हैं ! त्रिपुंज : मिथ्यात्व मोहनीय के कर्म प्रदेशों का समूह (पूँज) एक था । अब जीव विशुद्धि से उसके ३ पुंज (विभाग) बना देता हैं, उसे त्रिपुंज कहते हैं । (१) विशुद्धि से शुद्ध बने हुए प्रदेश पुंज सम्यक्त्व मोहनीय कहलाता हैं। (२) अर्धशुद्ध बना हुआ प्रदेश पुंज मिश्रमोहनीय पुंज कहलाता है । और (३) अशुद्ध ही रहा हुआ प्रदेश पुंज मिथ्यात्वमोहनीय कहलाता है । उसके बाद १००१ वें समय में जीव सम्यग्दर्शन पाता है । जैसे कोई व्यक्ति घोर अंधकार से छुट कर जब सूर्य के प्रकाश को पाता है या बन्धनों से मुक्त बन कर स्वतंत्रता को प्राप्त करता है, इसी तरह भयंकर रागद्वेषादि बन्धनों से मुक्त बना हुआ जीव आनन्द की अनुभूति करता है । क्योंकि उस समय अनन्तानुबन्धि क्रोध - मान-माया-लोभ सभी उपशान्त हो जाते हैं । यह औपशमिक सम्यक्त्व कहलाता है । अन्य सम्यक्त्व :- औपशमिक सम्यक्त्व के दौरान ६ आवलिका शेष रहने पर अनन्तानुबंधि कषाय का उदय होने पर जीव सास्वादन सम्यक्त्व को प्राप्त करता है । औपशमिक सम्यक्त्व के बाद सम्यक्त्व मोहनीय का उदय होने से जीव क्षयोपशम सम्यक्त्व पाता है । कोई क्षयोपशम सम्यक्त्व वाला जीव पुरुषार्थ कर अनन्तानुबंधी कषाय व क्रमशः मिथ्यात्व - मिश्र सम्यक्त्व मोहनीय ये तीन मोहनीय क्षय करके क्षायिक सम्यक्त्व पाता है । औपशमिक सम्यक्त्व के बाद मिश्र मोहनीय का उदय होने से चित्रमय तत्वज्ञान ६४ wwwwww.jamentary.org
SR No.004222
Book TitleChitramay Tattvagyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunratnasuri
PublisherJingun Aradhak Trust
Publication Year
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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