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________________ रूप है । यद्यपि इस जीव ने अभी मार्ग में प्रवेश नहीं किया है। फिर भी पापवृत्ति व पापप्रवृत्ति कम होने से मार्ग के सन्मुख हुआ है । इसलिये यह जीव मार्गाभिमुख कहलाता है । _मार्गपतित :- इसके बाद जीव मार्ग में पड़ा हुआ मार्गपतित यानी मार्ग में पहुंचा हुआ अर्थात् मोक्ष मार्ग के समीप पहुंचा हुआ मार्गपतित कहलाता है, यहां पर मोक्ष मार्ग से पतित ''गिरा हुआ'' ऐसा अर्थ नहीं करना । मार्गानुसारी :- मार्गपतित जीव अब स्वयं या किसी के उपदेश से न्याय नीति सौम्यता आदि मार्गानुसारी के ३५ गुणों का अनुसरण करता हैं । इससे वह सद्गति प्राप्त करता है । फिर भी कोई पाप करके दुर्गति में जाये, तो भी पुनः जल्दी उत्थान हो जाता है। चरम पुद्गलपरावर्त अथवा मतान्तर से अर्धपुद्गलपरावर्त के प्रवेश के वख्त शुक्ल पाक्षिक जीव कहलाता है । यह जीव मिथ्यात्व के अंधकार में भटकता था । उषाकाल की तरह अन्धकार कम होने से अब उजाला रूप शुभ योग में आगे बढ़ता है। १४ गुणस्थानक मिथ्यात्व व कषायों के क्षयोपशम , उपशम व क्षय से एवं घाति कर्मों के तारतम्य, उपशम व क्षय और अघाति कर्मों के क्षय से गुणों के प्रकट होने से या बढने से गुणों का स्थान = गुणस्थानक कहलाता हैं । जैसे मिथ्यात्व के उपशम, क्षयोपशम व क्षय से चौथे आदि गुणस्थानक की प्राप्ति, अनन्तानुबंधि (१२ महीने से ज्यादा रहने वाले) कषाय के क्षयोपशम, उपशम व क्षय से ४ था गुणस्थानक, अप्रत्याख्यान (१२ महिने के अन्दर समाप्त होने वाले) कषाय के क्षयोपशम , उपशम व क्षय से ५वां गुणस्थानक, प्रत्याख्यान (४ महीने में समाप्त होने वाले) कषाय के क्षयोपशम से व संज्वलन (१५ दिन में समाप्त होने वाले) का अल्पतर उदय होने से ६,७,८,९,१० वें गुणस्थानक की प्राप्ति होती है । संज्वलन कषाय के उपशम से ११वां और क्षय से १२ वां गुणस्थानक प्राप्त होता हैं, घातिकर्म के क्षय से १३वां व अन्य कुछ अघातिकर्म के चित्रमय तत्वज्ञान ४३ TOT Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004222
Book TitleChitramay Tattvagyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunratnasuri
PublisherJingun Aradhak Trust
Publication Year
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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