SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 30
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५ आत्मा शरीरादि से भिन्न क्यों हैं ? छः द्रव्य में से धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय इन तीन द्रव्यों का वर्णन हम कर चुके हैं । अब चौथे जीवास्तिकाय द्रव्य का वर्णन कर रहे हैं। जीवास्तिकाय यानी जीव, आत्मा । शरीर पुग़ल द्रव्य है | आत्मा उसमें रहती है । शरीर ही आत्मा नहीं है | उससे आत्मा भिन्न है । प्रश्न :- जीव शरीरादि से भिन्न क्यों है ? उत्तर :- शरीरादि भिन्न है, उसके १५ प्रमाण यानी सत्य युक्तियाँ निम्नलिखित हैं। १. जीव के गुण धर्म ज्ञान , इच्छा, सुख, दुःख वगैरह हैं । जब कि शरीर के गुण धर्म रूप - रस-गंध-स्पर्श आदि हैं | दोनों वस्तुओं के गुण धर्म अलग - अलग होने से दोनों वस्तुएं भिन्न होती हैं । जैसे शक्कर व गेहूं । २. जब तक शरीर में जीव होता है, तब तक ही रूखे-सूखे भोजन से भी खून वगैरह बनता है । किन्तु मृत शरीर में नहीं बनता । इस शरीर में से जीव चला गया, इस शरीर में जीव था, इस प्रकार बोलने से भी सिद्ध होता है कि जिसमें था, वह अलग चीज थी और जो था, वह अलग । अलग पदार्थ शरीर रूप आधार व अलग पदार्थ जीव रूप आधेय दोनों अलग होते हैं, जैसे भूतल व घर। अन्यथा जीव नाम का कहीं पर भी प्रयोग नहीं होता । शरीर के घटने बढ़ने से ज्ञानादि घटते बढ़ते नहीं है । इसलिये शरीर से जीव भिन्न है । शरीर एक मकान के समान है । जैसे मकान के अन्दर पाकखाना, पायखाना, खिड़कियाँ दरवाजे इत्यादि होते हैं । इसके अलावा उसमें रहने वाला मालिक अलग होता है । इस प्रकार शरीर रूपी मकान का मालिक आत्मा शरीर से भिन्न है । चित्रमय तत्वज्ञान ४. १७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004222
Book TitleChitramay Tattvagyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunratnasuri
PublisherJingun Aradhak Trust
Publication Year
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy