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________________ १७. नौ नत्व ____ जैनदर्शन में ९ तत्त्व माने गये हैं । वे तत्त्व सदा काल के लिए विश्व में होते हैं । जो नौ तत्त्वों को जानता है, वही वास्तव में सम्यग्दृष्टि यानी जैन है अथवा जो अज्ञानता की प्रबलता के कारण उन्हें विशेष प्रकार से नहीं भी जान सके, फिर भी भाव से उन पर श्रद्धा रखने वाला भी सम्यग्दृष्टि कहा जाता है । हमारे में जब समझने का सामर्थ्य है, तो . हमें इन नौ तत्त्वों को समझने का प्रयत्न अवश्य करना चाहिये । जिससे सही अर्थ में हम अपने आपको सम्यग्दृष्टि मान सकें । इसलिए नौ तत्त्व जानना आवश्यक ही नहीं, बल्कि अति आवश्यक है । उनके नाम व व्याख्या निम्न प्रकार है । (१) जीव :- जिसका लक्षण चेतना (चैतन्य) है, ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि गुण जिसमें रहते हैं । (२) अजीव :- चैतन्य से शून्य-जड़ जैसे के कपड़े, मेज वगैरह पुद्गल, आकाशास्तिकाय, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय व काल पुण्य :- जिससे जीव सुख व यश वगैरह पाता है। पाप :- जिससे जीव दुःख व अपयश वगैरह पाता है । आश्रव :- आश्रवति कर्म अनेनेति = जिससे कर्म आते हैं, वे (१) मिथ्यात्व (२) अविरति = हिंसादि पाप करने की छूट (३) प्रमाद, (४) क्रोधादि कषाय (५) योग = मन वचन काया की अशुभ प्रवृत्तियां ये पांच आश्रव है। (६) संवर :- संवृणोति कर्म अनेनेति संवर :, आते हुए कर्म जिससे रुके, उसे संवर कहते हैं, जैसे कि सम्यग्दर्शन, सामायिक, पौषध, चारित्र वगैरह । निर्जरा :- कर्म का झरना = नाश होना = निर्जरा कहलाता है, निर्जरा के साधन उपवास आदि १२ प्रकार के तप को भी उपचार से निर्जरा कहा जाता हैं। (८) बन्ध-जीव के साथ कर्म का क्षीरनीर वद् सम्बन्ध बन्ध कहलाता है। (९) मोक्ष - सब कर्म नष्ट हो जाना, मोक्ष कहलाता है। |चित्रमय तत्वज्ञान ७४ (७) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004222
Book TitleChitramay Tattvagyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunratnasuri
PublisherJingun Aradhak Trust
Publication Year
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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