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________________ व्याकरण की आवश्यकता होती है। व्याकरण वह शास्त्र है जो भाषा का विश्लेषण करके उसके स्वरूप को प्रकट करता है और भाषा को स्व-रूप में लिखने, पढ़ने, बोलने, समझने की विधि सिखाता है। किसी भी भाषा को सीखने-समझने के लिए उसके व्याकरण का ज्ञान आवश्यक है। प्राकृत व्याकरण के उपलब्ध ग्रंथों में वररुचि का प्राकृतप्रकाश' असंदिग्ध रूप से प्राचीन है। ईसा की तृतीय-चतुर्थ शताब्दी में रचित इस ग्रंथ का प्राकृत अध्ययन के क्षेत्र में विशिष्ट स्थान है। इसमें प्राकृत व्याकरण के सूत्र संस्कृत भाषा में रचित हैं। प्राकृत के विविध नियमों का विस्तृत विवेचन होने के कारण इस ग्रन्थ का विद्वत् जगत में काफी प्रचार एवं प्रसार हुआ है। प्राकृत भाषा के अध्ययन के लिए इस ग्रंथ का महत्त्व असंदिग्ध है। इसके महत्त्व और आवश्यकता को देखते हुए ही विभिन्न कालों में इसकी टीकाएँ लिखी गईं। इसमें बारह परिच्छेद हैं। सातवें परिच्छेद में क्रिया-कृदन्तों के सूत्र हैं। प्रस्तुत पुस्तक में प्राकृत व्याकरण के इन्हीं क्रिया-कृदन्तों के सूत्रों का विवेचन प्रस्तुत किया गया है। सूत्रों का विश्लेषण एक ऐसी शैली से किया गया है जिससे अध्ययनार्थी संस्कृत के अति सामान्य ज्ञान से ही सूत्रों को समझ सकेंगे। ___ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी द्वारा संचालित जैनविद्या संस्थान' के अन्तर्गत 'अपभ्रंश साहित्य अकादमी' की स्थापना सन् 1988 में की गई। वर्तमान में इसके माध्यम से प्राकृत व अपभ्रंश का अध्यापन पत्राचार के माध्यम से किया जाता है। प्राकृत भाषा को भली प्रकार सिखानेसमझाने को ध्यान में रखकर ही प्राकृत रचना सौरभ', 'प्राकृत अभ्यास सौरभ', 'प्रौढ प्राकृत रचना सौरभ', 'प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ', 'वररुचिप्राकृतप्रकाश' (भाग - 1) आदि पुस्तकों का प्रकाशन किया जा चुका है। इसी क्रम में वररुचि-प्राकृतप्रकाश' (भाग - 2) प्रकाशित है। प्रस्तुत पुस्तक भी प्राकृत अध्ययनार्थियों के लिए उपयोगी सिद्ध होगी, ऐसा हमारा विश्वास है। (vi) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004170
Book TitleVarruchi Prakrit Prakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Seema Dhingara
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2010
Total Pages62
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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