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________________ १८ कहाऊँ स्तम्भ एवं क्षेत्रीय पुरातत्व की खोज तीर्थकरों की स्तुति जैनधर्म की पुस्तकों के आरम्भ में की जाती है । यह भी विवादास्पद है । श्री जैनेन्द्र वर्णी द्वारा रचित 'जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश' जो भारतीय ज्ञानपीठ से १९८५ में छपी है, पृष्ठ १ पर यह ग्रंथ सरस्वती की वंदना से प्रारम्भ किया है । इन विद्वान् लेखक ने इस पुस्तक में जैन सिद्धान्त की विवेचना पाँच बृहद् भागों में की है । अगर कोई पाँच प्रमुख तीर्थंकर होते एवं उनकी स्तुति की परिपाठी होती तो अवश्य ही इस ग्रंथ का प्रारम्भ उनकी स्तुति से होता । इसी प्रकार दिगम्बर जैन पूजापाठ की पुस्तकों में सबसे अधिक प्रचलित पुस्तक 'पूजन-पाठ-प्रदीप' का उदाहरण लें। इसके २६वें संस्करण, १९९६, पृ० १७ पर यह पुस्तक मंगलाष्टक स्तोत्र से प्रारम्भ की गई है। यह मंगलाष्टक स्तोत्र पंच परमेष्ठी की स्तुति है, न कि किन्ही पाँच प्रमुख तीर्थंकरों की । मैं यहाँ भी बता दें, यह स्तम्भ दिगम्बर है। इस प्रकार भगवानलाल इन्द्रजी द्वारा बताये ‘पांच सुविख्यात जिनो' की धारणा एवं अंकन सिद्ध नहीं होता । मेरी धारणा है मद्र ने स्तम्भ के पश्चिमी पहलू पर श्री पार्श्वनाथ के ऊपर श्री आदिनाथ स्वामी को उकेरा है जिनकी पहचान उनकी जटा से की जा सकती है । देखें चित्र -२ व ३ । शेष तीन कोन तीर्थंकर ऊपर स्थापित किये ज्ञात नहीं है, परन्तु पुष्पदन्त भगवान का तीर्थ होने से उनकी मूर्ति भी इन तीन में है। भगवान पुष्पदन्त की मूर्ति इस स्तम्भ के निर्माण से एक सदी पूर्व विदिशा में स्थापित हो चुकी थी जिसका, चित्र पुस्तक की जिल्द पर है एवं वर्णन प्राक्कथन में है। इन पञ्चेद्राँ के बारे में दूसरा मत राजबली पाण्डेय का है कि ये पाँच मूर्तियाँ स्तम्भ के सामने बने हुए मन्दिर में थीं। राजबली पाण्डेय का मत है कि-(१) स्थापयित्वा शब्द का अर्थ है-विधि पूर्वक मूर्ति की स्थापना; (२) 'धरणिधरमयान' शब्द का अर्थ है पाषाण द्वारा निर्मित जो पाषाण पर उकेरी इन मूर्तियों के लिये प्रयुक्त नहीं होगा; (३) पाण्डेय जी ने वहाँ पास ही कुछ जैन मूर्तियों के अवशेष देखे एवं उन्होंने अनुमान लगाये वे अवशेष उन पाँच मूर्तियों के हैं जो मद्र ने स्तम्भ के सामने के मंदिर में स्थापित की होंगी; (४) मंदिर के सामने के स्तम्भ पर मंदिर की मूर्तियों का प्रतीक स्थापित होता है । इस प्रकार के स्तम्भ की उकेरी शक्लें मंदिर की मूर्तियों के प्रतीक हैं। . ___इस विषय में मुझे कहना है कि (१) जैनधर्म में स्तम्भ एवं उसमें स्थापित अथवा उकेरी मूर्तियों में देवत्व की स्थापना पूजा, विधि-विधान से की जाती है; (२) मंदिरों में भी शिलापट जिनमें मूर्तियाँ उकेरी गई हों स्थापित किये जाते हैं। उनकी स्थापना एवं तदन्तर पूजा-अर्चना का विधान वही है जो तीनों दिशाओं में तराशी मर्ति का होता है । इस प्रकार 'धरणिधरमयान' शब्द का अर्थ संकुचित नहीं किया जा सकता; (३) मद्र ने कोई मन्दिर निर्माण नहीं किया अन्यथा उस मंदिर का उल्लेख इस Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004156
Book TitleKahau Stambh evam Kshetriya Puratattv ki Khoj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyendra Mohan Jain
PublisherIdrani Jain
Publication Year
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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