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________________ तत्त्व मुदा है' || जीव अलग द्रव्य है, देह अलग द्रव्य है। यही दोनों की स्वतंत्रता है। यद्यपि जीव व देह दोनों एक क्षेत्रावगाही हैं, परन्तु जीव पुद्गल नहीं हो गया और पुद्गल जीव नहीं हो गया। दोनों एक साथ होते हुए भी दोनों की सत्ता स्वतंत्र है (360)। अहो हमने अपनी स्वतंत्रता को जाना ही नहीं कि मैं स्वाधीन द्रव्य हूँ। जगत् में कोई दुःख है, तो पर से अपेक्षा, पर के नीचे रहना, पराधीन होना, परतंत्र होना। आप अपनी सत्ता को, स्वाधीनता को, स्वतंत्रता को तो समझ लो। एक दूसरे से ऐसे घुले मिले बैठे हो कि मेरा जीवन तुम्हारे बिना नहीं चलेगा और तुम्हारा जीवन मेरे बिना नहीं चलेगा, यह ध्रुव मिथ्यात्व है। निज द्रव्यता की अनुभूति की मान्यता घोर मिथ्यात्व है। वात्सल्य के साथ तो रहना, पर न प्रीति करना और न लड़ाई लड़ना। घर और समाज के लोग न तेरे साथ आये थे, न आयेंगे और न जायेंगे। तू स्वतंत्र द्रव्य है और ये सब चेतन अचेतन अलग-अलग अपने में स्वतंत्र द्रव्य हैं (360)। सोचो जब तुम पैदा हुये थे, तब कैसे हाथ आये थे,खाली हाथ आये थे न, और जब जाते हो तो कैसे जाते हो खाली हाथ। न कुछ साथ लाये थे, न कुछ साथ ले जाना है। तुम्हारे महल ये सारे, यहीं रह जायेंगे प्यारे, अकड़ किस बात की प्यारे, ये सर फिर भी झुकाना है। सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है। क्यों झूठी मान्यता पकड़ रखी है कि ये सब मेरे हैं। अपने होते तो साथ जाते। अर्थं गृहे निवृतन्तिं, श्मशाने बन्धु बान्धवः। सुकृतं दुष्कृतं चैव, गच्छति अनुगच्छति। राग द्वेष भाव भी जब तेरा नहीं है तो रागादिक भाव जिनसे कर रहा है, वह कैसे तेरे हो जायेंगे? जो भी तुम्हें मिला है, वह पुण्य से ही मिला है और ये जीव कहता है कि मेरा द्रव्य | जिस पुण्य के उदय से तुम भोग भोग रहे हो, वह पुण्य भी तेरा द्रव्य नहीं है तो उस पुण्य से प्राप्त द्रव्य को तेरा कैसे मान लें? पुण्य मेरी आत्मा का द्रव्य नहीं, पुण्योदय भी मेरी आत्म का द्रव्य नहीं, पापोदय भी मेरी आत्मा का द्रव्य नहीं। ये सब आस्रव हैं, बंध हैं, आत्मा के स्वभाव नहीं। ये चेतन तो पूर्ण एकत्व-विभक्त, चिद्रूप, एक अकेला है। हे ज्ञानी! तुम्हें अभी अपने चेतन की स्वतंत्रता का ज्ञान नहीं है इसलिए तू बिलख रहा है (361)। अतः 'ततस्वं दोष निर्मुक्त्यै' – दोषों से रहित होकर निर्मोह में बुद्धि पूर्वक लग जाओ, लेकिन निमित्तों में लगने के लिए नहीं, निमित्तातीत होने के लिए | बस यही तो ज्ञान में लाना है और यह समझना है। मात्र रूप देशना विमर्श 73 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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