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स्वरूपदेशनाकीक्रांतिकारीआध्यात्मिकसूक्तियाँ
-डा० अनेकान्त कुमार जैन, जैन दर्शन विभाग, श्री लाल बहादुर शा० रा० संस्कृत विद्यापीठ (मा० विश्वविद्यालय)
नई दिल्ली-110016 साहित्य में सूक्तियों का बहुत महत्व है। सूक्तियों के माध्यम से मानवता की सुषुप्त चेतना पुनः झंकृत हो उठती है। जो कार्य बड़े-बड़े ग्रन्थ निबन्ध नहीं कर पाते हैं वह कार्य सूक्तियों के माध्यम से हो जाते हैं। सूक्तियाँ अपने भीतर व्याख्याओं का महासागर लेकर चलती है। कितनी ही सूक्तियाँ इतनी अधिक गम्भीरता को लिए हुए होती हैं जिसकी व्याख्या में ग्रन्थों की रचनायें भी हो सकती हैं।
पूज्य आचार्य अकलंक देव (7वीं शती) विरचित ‘स्वरूप- सम्बोधन' जैसे आध्यात्मिक ग्रन्थ पर पूज्य आचार्य विशुद्ध सागर जी महाराज (21वीं शती) के प्रवचनों का संग्रह ‘स्वरूप देशना' नामक ग्रन्थ में यद्यपि सूक्तियों का भण्डार है। उन सूक्तियों के आधार पर यदि संग्रह किया जाये तो एक स्वतंत्र ग्रन्थ का प्रणयन हो सकता है। इसी ग्रन्थ से कुछ प्रमुख सूक्तियों का चयन मैंने अपने इस आलेख में किया है जिनके माध्यम से मिथ्यात्व और मोह से सुषुप्त पड़ी मानवीय चेतना अचानक जागृत हो सकती है और इन सूक्तियों की चोट गहरी लग जाये तो सम्यक्त्व का द्वार खोल सकती हैं। - आज धर्म के नाम पर पाखण्ड को प्रतिष्ठित करने वालों की होड़ लगी है। आज वे पाखण्ड इतनी तीव्रता और कुतर्कों के साथ प्रतिष्ठित होते जा रहे हैं कि उनके बारे में कुछ कहना, सुनना भी खतरे से खाली नहीं है। छद्म वीतरागता के नाम पर राग-द्वेष का जो तमाशा खड़ा किया जा रहा है उससे हम सभी अचंभित हैं। हम भय से या तो उसका अनुकरण किये जा रहे हैं या उसकी तरफ से दुष्टि हटाकर 'हमें क्या करना? के वाक्य बोलकर अपनी जिम्मेदारियों से मुख मोड़ रहे हैं।
उसका विरोध करने या समीक्षा करने का साहस भी अब हमारे पास नहीं रहा। ऐसे विषम माहौल में आचार्य प्रवर का यह वाक्य हमें अपने कर्तव्य का बोध कराता है
स्वरूप देशना विमर्श
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