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________________ होते हैं । बाल्टी टोंटी के नीचे रखने से ही भरती है। ऊपर रखने से नहीं ॥ पृ० 133 19. "जिनगुण सम्पत्ति होऊ मज्झं" ही श्रेष्ठ है- सम्यग्दृष्टि जीव भगवान के पास भिखारी नहीं भक्त बनकर आता है। वह दुकान चलने, मकान बनने आदि की लौकिक कामनायें नहीं मांगता, त्रिलोकीनाथ से अलौकिक मांगना जो कहीं नहीं मिलता। वह तो कहता है कि 'हे भगवन जिनेन्द्र गुण सम्पत्ति मुझे प्राप्त हो ।' यही श्रेष्ठ है। पृ० 134-135 20. चतुर्विध कथायें एवं आत्मानुशासन - आक्षेपिणी, विक्षेपिणी, संवेगिनी व निर्वेगनी ये 4 कथायें हैं। स्वमत का मंडन, परमत का खंडन ये आक्षेपण-विक्षेपणी तथा बोधि- समाधि सिद्धि कराने वाली संवेदनी - निर्वेदनी कथायें हैं । समाधिस्थ जीव के लिए संवेगनी - निर्वेगनी कथायें करना चाहिए। मध्यकाल में जिन जिनेन्द्र भगवान ने आत्मानुशासन किया | वही आज विश्व पर शासन कर रहे हैं। सदाचारी ही समाज द्वारा स्वीकार किया जाता है। पृ० 135 21. लाभान्तराय कर्म के क्षयोपशमानुसार ही प्राप्ति होती है- जीव के अपने लाभान्तराय क्षयोपशम के अनुसार ही प्राप्ति होती है क्योंकि यदि कोई अधिक दे भी दे तो ठहरता नहीं है। अकृत पुण्य को उसके भाईयों ने मजदूरी के बदले पोटली भर चने दिये किन्तु घर पहुँचते-पहुँचते मुट्ठी भर बचे शेष पोटली के छेद से निकल गये। साधु/ अतिथि / मेहमान के लिए यथायोग्य सत्कार पूर्वक खिलाता है और दरवाजे के भिखारी को मुट्ठी भर देकर ही टरकाता है। इसलिए जो प्राप्ति हो उसमें ही संतोष धारण करो । पृ० 143 22. वस्तु व्यवस्था में निमित्त - नैमित्तक सम्बन्ध - वस्तु व्यवस्था में नानत्वएकत्वपना भी है। इन्ही दृष्टियों से विसंवाद समाप्त होते हैं - निमित्त ही सर्वस्व नहीं, माना कि बादाम से बुद्धिवृद्धिगंत होती है लेकिन यदि पागल पुरुष को खिलाओ तो बन्ध होगा, बादाम बिगड़ेगी, अपच होगा। बल्ब विद्युत से जलता. है किन्तु फ्यूज बल्ब नहीं, हलुआ - दूध वृद्ध के लिए कार्यकारी नहीं । अतः सिद्ध है कि स्वस्थ्य नैमित्तक के लिए निमित्त सहकारी है। सर्वत्र नहीं ॥ पृ० 152 23. आठ अंगुल पर विजय से विश्व विजय- चार अंगुल रूप कामेन्द्रिय एवं चार अंगुलरूप रसनानेन्द्रिय पर नियन्त्रण करने पर अष्टम वसुधा प्राप्त हो जायेगी। गुप्तियों में मनोगुप्ति, इन्द्रियों में रसना, व्रतों में ब्रह्मचर्य व्रत, कर्मों में मोहनीय कर्म ही प्रधान है । पृ० 165 स्वरूप देशना विमर्श Jain Education International For Personal & Private Use Only 225 www.jainelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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