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________________ इसी प्रसंग में उनकी स्पष्ट प्रतिपत्ति का एक नमूना देखिए- जो भी परिणमन है वह पर्याय है द्रव्य की धौव्यता तो धोव्य है। अस्तित्व गुण द्रव्य की त्रैकालिकता का ज्ञापक है, आत्मा लोक के किसी भी प्रदेश में रहते हुए, किसी भी पर्याय में अवस्थित होकर भी अपने ज्ञान दर्शन-स्वभाव का त्याग नहीं करता; द्रव्य-व्यञ्जन पर्याय जो विभाव रूप है, वे सब पुद्गल रूप हैं, उनके मध्य रहते हुए भी आत्मा अपने जीवत्व भाव के अस्तित्व का अभाव नहीं कर सका, पुद्गल जीव के साथ कर्म रूप से अनादि से सम्बद्ध है, वह अपने पुद्गलत्व भाव के अस्तित्व का अभाव नहीं कर सका । लोक में छ: द्रव्य अवस्थित हैं, एक दूसरे में मिले होने पर भी स्व अस्तित्व का विनाश नहीं होने देते,यह प्रत्येक द्रव्य का साधारण धर्म है, कहा गया है अण्णोण्णं पविसंता देंता ओगास मण्णमण्णस। मेलंता वि य णिच्चं सगं सभावं ण विजहंति॥ -पंचास्तिकाय,गा.7 । अर्थात वे द्रव्य एक-दूसरे में प्रवेश करते हैं, अन्योन्य को अवकाश देते हैं, परस्पर नीर क्षीर वत् मिल जाते हैं, तथापि सदा अपने-अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते । एक द्रव्य दूसरे द्रव्य रूप लोक में कभी नहीं होते। अपने स्व चतुष्टय में ही निवास करते हैं । यह व्यवस्था अनादि से सहज है, किसी अन्य पुरुष कृत नहीं है, व्यक्ति व्यर्थ में मोह वश भ्रमित होकर जगत्कर्ता-हर्ता-रक्षक की कल्पना कर अपने सम्यक्त्व को मलिन कर मिथ्यात्व की गर्त में गिरता है। तटस्थ हुआ योगी लोक व्यवस्था को देखकर न हर्ष को प्राप्त होता है, न विषाद को । वह माध्यस्थ्य भाव से निज द्रव्य-गुण-पर्याय का अवलोकन कर असमान-जातीय-पर्याय से मोह घटाकर समान- जातीय अपने चैतन्य-धर्म का अवलोकन करता है। अन्य को अन्य भूत ही देखता है। अन्य में अन्य दृष्टि को नहीं डालता, अन्य तो अन्य ही रहते हैं, वे अन्यान्य तो नहीं हो सकते, क्योंकि भिन्न द्रव्य का भिन्न द्रव्य से अत्यन्ताभाव होता है। तत्त्व ज्ञानी यह समझता है कि लवण समुद्र का पानी ग्रीष्म काल में शुष्क होकर कठोर नमक के रूप में परिवर्तित हो जाता है। वह कठोर द्रव्य वर्षाकाल में तरल पानी के रूप में पुनः आ जाता है। यह तो हो सकता है, क्योंकि इनमें अन्योन्याभाव था, पर ऐसा जीवादि द्रव्यों के साथ नहीं होता, चाहे ग्रीष्म काल हो, चाहे शीत, एक द्रव्य दूसरे द्रव्य रूप कभी भी नहीं होता, अपनी – अपनी सत्ता में ही सद् रूप रहते हैं। सद्-रूपत्व-अस्तित्व/स्वरूपास्तित्वअस्तीत्येतस्य भावोऽस्तित्वं सद्रूपत्वम्॥ ___ -आलापपद्धति, सूत्र 94 (8) -स्वरूपदेशना विमर्श Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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