________________
मंगल क्यों और कैसे?
जिन्होंने मंगल आचरण करके अपने जीवन से पापरूप मल का प्रक्षालन कर लिया है, पावन पवित्र हो गये हैं। जिनका नाम ही मंगलमय है, संसारी जीव को इनके निर्देशित पथ का मंगल आचरण करते हैं। मंगल को उपलब्ध हो जाते हैं। भले ही उनका वर्तमान में साक्षात्कार नहीं हो रहा हो।।
मंगल जिनवर पद नमो मंगल अहंत देव।"
मंगलकारी सिद्ध पद सो वंदौ स्वमेव॥ मंगल आचारज मुनि मंगल गुरु उवझाय।
सर्व साधु मंगल करो वंदौ मन वच काय॥" उदक-चंदन-तंडुल-पुष्पकैः चरुसुदीप-सुधूप-फलार्घ कैः धवल मंगल गान रवाकुले जिनगृहे जिननाथ महं यजे।"
आचार्यों ने मंगल के विविध भेद किये हैं, जिनका जीवन में पारायण करने से जीवन दोषमुक्त, व्यसनमुक्त, अधि-व्याधि रहित हो उत्कृष्टता को प्राप्त कर मंगल आचरण को धारण कर लेता है। मंगल के भेद"1. सामान्य की अपेक्षा से एक प्रकार का है। 2. मुख्य और गौण की अपेक्षा से दो प्रकार है।
निबद्धमंगल और अनिबद्ध मंगल के रूप में दो प्रकार का है। 3. सम्यग्दर्शन, सम्यज्ञान और सम्यक् चारित्र की अपेक्षा तीन प्रकार है। 4. धर्म, सिद्ध, साधु और अर्हत के भेद से चार प्रकार का है। 5. ज्ञान, दर्शन और तीनगुप्ति की अपेक्षा पाँच प्रकार का है। 6. द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, नाम और स्थापना की अपेक्षा छः प्रकार का है। 7. जिनेन्द्र देव को नमस्कार हो इत्यादि रूप अनेक प्रकार का है।
मंगल के विषय में छः अधिकारों द्वारा दंडकों का कथन कहा गया है। 1. मंगल-पापों को गलाये तथा सुख को लाये वह मंगल है। 2. मंगलकर्ता-चौदह विद्यास्थानों के पारगामी आचार्य परमेष्ठी।
स्वरूपदेशना विमर्श Jain Education International
-(207)
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org