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स्वरूप संबोधन में जिनशासन/नमोस्तु शासन
___ -ब्र० निहाल चंद्र"चंद्रेश" स्वरूप संबोधन आचार्य भट्ट अकलंक देव की लघुकृति है जो न्याय दर्शन पर आधारित है। इस कृति पर परम पूज्य आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी ने देशना की । इन्हीं प्रवचन रूप देशना का संग्रह स्वरूप संबोधन देशना है। देशनाकार परमपूज्य आचार्य श्री ने मंगलाचरण करते हुए कहा । (पृ० संख्या 2).
श्रमण परम्परा में निर्ग्रन्थों के दस कल्पों की चर्चा की है। जैन योगी वात रसायण हैं, अलौकिक। जैसे वायु प्रवाहमान रहती है, ऐसे ही निर्ग्रन्थ श्रमण प्रवाहमान रहते हैं। पानी का रूकना, पानी के अन्दर दुर्गन्ध को उत्पन्न करता है। पानी जितना बहता है, उतना निर्मल रहता है। यही कारण है कि तीर्थंकर महावीर स्वामी के उपरान्त भी अनेकानेक तूफानों को झेलते हुए वीतराग श्रमण संस्कृति आज भी जयवन्त है। विश्वास रखना, जब तक पंचमकाल की श्वासें हैं, तब तक भारत की भूमि पर नमोऽस्तु ऐसे ही गूंजता रहेगा जैसे ज्ञान गूंज रहा है। जब तक अग्नि और अम्बर हैं, जब से अग्नि और अम्बर है तब से दिगम्बर है और तब तक दिगम्बर है।
तीर्थंकर महावीर स्वामी के निर्वाणोपरान्त यह जिन नमोऽस्तु शासन 683 वर्षों तक अविरल गति से चला, क्योंकि केवली, श्रुतकेवली, अंगधारी मुनि होते रहे। इसके बाद भी अन्यान्य एक अंगधारी मुनि 275 वर्ष तक होते रहे, तब भी नमोऽस्तु शासन गूंजता रहा । कल्कि राजा के काल में इस जिन नमोऽस्तु शासन का बहुत ह्रास हुआ । इसके उपरान्त बड़े-बड़े आचार्य हुए । जिनमें भट्ट अकलंक देव एक प्रमुख आचार्य हुए । इनके काल में बौद्ध धर्म को राजाश्रय प्राप्त था जिसके कारण कोई भी अन्य धर्म पनप नहीं सका । ऐसे वक्त में अकलंक, निकलंक नामक दो सहोदर राजपुत्र हुए। जिन्होंने छद्मभेष में विद्याध्ययन किया । राजगुरु के लिए यह रहस्य ज्ञात होने पर दोनों भाई पाठशाला से भाग निकले पर होनहार को कौन टाल सकता है? विधि का विधान एक भाई निकलंक का बलिदान हो गया । अकलंक देव ने जैनश्वरी दीक्षा धारण कर ली। दीक्षा लेते ही स्मरण आ गया कि जिसके कारण भाई गंवाया है उस कार्य को पूरा करना है। . ___ अकलंक स्वामी के काल में भूमण्डल पर ऐसा कोई मुनष्य ही नहीं था, जो उनसे विजयश्री प्राप्त करके चला जाये । बौद्धों ने मटके के अन्दर तारा देवी को विस्थापित किया था और पर्दे के अन्दर शास्त्रार्थ चल रहा था। छः मास के पश्चात् स्वरूप देशना विमर्श
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