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________________ स्वरूप सम्बोधन परिशीलन के परिप्रेक्ष्य में द्रव्य स्वरूप की अवधारणा -प्रो० श्रीयांशकुमार सिंघई, जयपुर “स्वरूप सम्बोधन पञ्चविंशतिः” आचार्य श्रीमद् भट्ट अकलंकदेव द्वारा रचित ऐसी कृति है जहाँ गागर में सागर समाया हुआ दिखाई देता है। जैनवाङ्मय बहुविध प्ररूपणाओं का वह विशाल आगर है जहाँ बहुविध प्राणियों के जीवन मूल्य इंगित हैं। यदि संकेत ग्राही कोई भी संज्ञी प्राणी सावधान होकर अपनी बुद्धि वहाँ केन्द्रित कर ले तो वह स्वरूपावबोधन के रास्ते पुरुषार्थ करके परमात्मा बन सकता है। मात्र पच्चीस लघु छन्दों में निबद्ध निज स्वरूप के अभिज्ञान की जिज्ञासा से सम्पन्न कोई भी विज्ञ श्रावक जब इस कृति को हृदयङ्गम करता है तो उसका मन मयूर नाचने लगता है और भौतिक चकाचौंध से परे होकर शास्त्रबोधजन्य पाण्डित्य के भार को उतार फेंकने की प्रेरणा पा जाता है। अपार शास्त्रज्ञान भी तभी सार्थक होता है जब लक्ष्य केन्द्रित निज आत्म तत्त्व का परिज्ञान संभव हो जाये । आचार्य अकलंक ने स्वरूप सम्बोधन के उपदेशामृत को इस लघु कृति में इस तरह से पुरुस्कृत किया है कि जिज्ञासु उसकी उपेक्षा कर ही नहीं सकता है। उपदेश का कलेवर इतना छोटा है कि समयाभाव का बहाना भी यहाँ ग्राह्य नहीं है। भाषा की दुरुहता का भी कोई कारण मौजूद नहीं है। सरलता एवं मिठास से भरे इस अमृतोपम उपदेश को हर सरल हृदय जन समझ सकता है। उपदेश के प्रमेय का बीजारोपण, अंकुरण, विकास और फलागम बोध यहाँ उस चतुर चेता को अवश्य हो सकता है जो मोहन्धता, कर्तृत्वाहंकारिता, पराभिज्ञान की मूर्छा, पराश्रित आनन्द लाभ की चाह आदि के बोझ को उतार कर फेंक दे और व्याकुल हुए बिना स्वयं निज स्वरूप को जान लेने के अभियान में आनन्दित होता चला जाये। . ___ स्वरूप देशना आचार्यश्री विशुद्ध सागर जी के प्रवचनों का संकलन है। यहाँ उनके प्रवचनों का मुख्य प्रमेय स्वरूप सम्बोधन पञ्चविंशति का अमृतोपदेश ही है। आचार्य अकलंक का अमृतोपम उपदेश पाठक को स्वरूप सम्बोधन की सुध कराता हुआ और आचार्य विशुद्ध सागर जी की वाग् उपासना के परिणाम स्वरूप विशुद्ध होता हुआ मानो उनके श्रोताओं, पाठकों की विशुद्धि के लिए सशक्त निमित्त कारण बन गया है। आचार्य अकलंक ने स्वयं स्पष्ट कर दिया है कि जो कोई भी प्रदत्त उपदेश के अनुसार स्वतत्त्व को जानने की भावना करके इस वाङ्मय को वाँचता है या स्वरूप देशना विमर्श (3) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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