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________________ शब्द स्फोट ये कहना मुझे जरूरी है। आज का कहना आपके मस्तिष्क में भविष्य के ग्रंथ बनते हैं । शब्द स्फोट, शब्द द्वैत, शब्द हैं, आकाश का धर्म, इन तीनों बातों को जैन दर्शन स्वीकार नहीं करता। ये जो बादल दिखते हैं वे आकाश नहीं हैं, ये पौद्गलिक बादल हैं। आकाश जो आप देख रहे हो और दिखाई नहीं दे रहा है और जिसमें आप हो, वह आकाश है। गन्ध से शून्य जो आकाश है, वह अमूर्तिक है। स्पर्श, रस, वर्ण से रहित । ये आकाश लोकाकाश और अलोकाकाश दो भागों में विभक्त हैं। लोकाकाश में हमारा अवगाहन है। यदि मैं शब्द को आकाश का धर्म मान लूँगा, तो फिर शब्द जो हैं उसकी सीडी बन रही है, कैमरा रखा हुआ है इसमें कैसे बंद हो जायेगा ? आकाश को आप कैमरे में बन्द करके दिखाओ। दोनों हाथों को फैला लेना, आकाश को पकड़ कर दिखाओ। उसे पकड़ भी नहीं सकते, उसे नष्ट भी नहीं कर सकते हैं, उसे आँखों से देख भी नहीं सकते हैं। क्योंकि वह अमूर्तिक है । अमूर्तिक से मूर्तिक की उत्पत्ति कैसे ? शब्द मूर्तिक हैं। यह न आत्मा की पर्याय है, न आकाश की पर्याय है। शब्द तो पुद्गल की पर्याय है । 'तत्त्वार्थ सूत्र' में उमा स्वामी महाराज ने पाँचवें अध्याय में सूत्र लिखा है। शब्दबन्धसौक्ष्म्यस्थौल्य संस्थान भेदतमश्छायातपो- द्योतवन्तश्च ॥24॥ जो आकाशवाणी आप सुन रहे हो, आकाश से गुजर कर आ रही है, उसे आकाशवाणी कह देना, लेकिन आकाश की वाणी नहीं है। आकाश नीरव है, आकाश में आवास नहीं, आकाश में हलचल नहीं। समझो मुमुक्षु ! जैसे आकाश नीरव है, वैसी ध्रुव आत्मा मेरी नीरव है। नीरव स्वभावी आत्मा का ध्रुव स्वभाव है। रव अर्थात् आवाज । विश्वास रखना, बन्द कमरे में जहाँ एक भी शब्द नहीं आ रहा है, बैठ कर देखना, कैसे आनन्द आता है। जितने भी विकल्प उठ रहे हैं, योग से योगी च्युत हो रहा है, उसका मुख्य कारण है आवाज। आपके घर में जो युद्ध हो जाते हैं, उसका मुख्य कारण भी आवाज है। आकाश में होने का निषेध नहीं है, आकाश के होने में निषेध है। आकाश में छः द्रव्य हैं, लेकिन वे आकाशभूत नहीं हैं, तत्त्वभूत नहीं है, व्याप्यव्यापक नहीं है । आधार - आधेय सम्बन्ध हैं व्यवहार से । परमार्थ से आधार आधेय सम्बन्ध भी नहीं है। यही विषय शास्त्र बनता है । " जितने भी विकल्प उठते हैं, जितने भी युद्ध हुए हैं, जितने भी संबंध विच्छेद हुए हैं, ये सब शब्द की महिमा है। जितने विपरीत संबंध जुड़े हैं, वे शब्द का जाल हैं। जितने खोटे संबंध जुड़ते हैं, वे देखने के बाद बोलने से । इसलिए अपरिचितों से अपरिचित रहने से ही संयम का पालन हो सकता है। अपरिचितों से परिचित होना स्वरूप देशना विमर्श - Jain Education International 1 For Personal & Private Use Only 155 www.jainelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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