________________
888888888880000-000MMANACONNAMOKAARAM
S
स्वरूपसम्बोधन
(स्वरूपदेशना) ता. 22.05.2010 से 28.06.2010 तक
स्थान: श्री दि० जैन उदासीन श्राविकाश्रम समवशरण जिन मंदिरजी,
तुकोगंज, इंदौर मूलः आचार्य श्री भट्ट अकलंक देवजी
व्याख्याताः आचार्यश्री विशुद्ध सागरजी यह ग्रंथ न्याय का अद्भुत ग्रंथराज है। गागर में सागर समान, अनंतधर्मात्मक आत्मा आदि द्रव्यों की विवेचना बहुत ही सरल दृष्टान्तों के द्वारा आचार्यश्री ने भव्यों को अमृत रूप में पान कराया है। यद्यपि वक्तृत्व शैली उत्तम होने पर भी श्रोता भव्यात्माओं को हृदयंगम करने हेतु ज्ञान को प्रशस्त करना परम आवश्यक है। ग्रंथराज में द्वादशांग का सार है। चारों अनुयोगों में प्रवेश की ‘मास्टर की' है। अनेकानेक उदाहरणों द्वारा वस्तु स्वरूप को भलीभाँति समझाया गया है। फिर भी श्रोताओं को अपनी-अपनी पात्रतानुसार ही आत्मसात होगा। ग्रंथराज का आद्योपांत बारम्बार पठन और मनन करना जरूरी है। प्रत्येक श्लोक पर व्याख्या लगभग 15 पृष्ठों की तो है ही। “स्वरूप देशना” ग्रंथराज का प्रतिज्ञाबद्ध होकर अवश्य ही चिंतवन/मंथन निरन्तर करते रहने से ही आत्मशांति व कल्याण का मार्ग प्रशस्त होगा। स्याद्वाद के गुरुमंत्र से सम्पन्न श्रमणों का महान उपकार है। करूणा का ही प्रतिफल है कि ऐसी अद्भुत स्वरूप देशना स्व-पर कल्याण कारक कृति प्रस्तुत की गई। बारम्बार पठन, मनन, चितवन करना ही उन उपकारी ज्ञानी जीवों . के प्रति विनयांजलि होगी, उपकार स्मरण होगा, कृतज्ञता ज्ञापित होगी। सुखाभिलाषी,
-पं० रतनलाल शास्त्री
इन्द्र भवन, इन्दौर
स्वरूप देशना विमर्श
10
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org