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________________ स्वरूप-देशना - सूक्तियाँ एवं नीति वाक्य पं० (डा०) रमेशचन्द्र जैन मुरार, ग्वालियर मुक्तामुक्तकरूपो यः, कर्मभिःसंविदादिना। अक्षयंपरमात्मानं, ज्ञानमूर्ति नमामि तम्॥1॥ आचार्य श्री भट्ट अकलंक देव द्वारा विरचित प्रस्तुत ग्रन्थ में इस मंगलाचरण के माध्यम से मुक्त और अमुक्त रूप अविनाशी ज्ञानमूर्ति परमात्मा को नमन किया है। स्वःस्वं स्वेन स्थितं, स्वस्मै स्वस्मात्स्वस्याविनश्वरम्। स्वस्मिन् ध्यात्वा लभेत, स्वोत्थमानन्दामृतं पद्म।।25।। और इस अन्तिम श्लोक में श्री भट्ट अकलंकदेव ने निज आत्मा अपने स्वरूप को सात विभक्तियों के ध्यान से प्राप्त कर सकती हैं। यह समझाया है। परम पूज्य आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी महाराज ने प्रस्तुत ग्रन्थ पर एक सामान्य ज्ञानी एवं भव्य जीवों के कल्याण हेत अनेक सक्तियों एवं नीति वाक्यों के माध्यम से अत्यन्त सरल भाषा में देशना की है जो बार-बार चिन्तन - मनन एवं स्वाध्याय योग्य है।गुरुदेव का प्राणी मात्र पर यह बड़ा उपकार है। सूक्तियाँ1. जैन योगी वातरसायन है अलौकिक है। 2. 'प्रियधम्मो, दृढ़ धम्मो'। 3. जिनागम में चार कथाएँ प्रसिद्ध हैं- (1) आक्षेपिणी (2) निक्षेपिणी (3) संवेगिनी (4) निर्वेदिनी। 4. नारियल के वृक्ष में कोई पानी भरने नहीं आता। अपने आप आता है पानी। 5. तर्कशास्त्र से जो श्रद्धा बनेगी वह टूट नहीं पायेगी। 6. 'भवत्यभद्रोऽपि समन्तभद्रः प्रभो आपके पादमूल में अभद्र भी आता है, तो वह समन्तभद्र हो जाता है। 7. 'आत्मस्वभाव परभाव भिन्' 8. छ: द्रव्य त्रैकालिक हैं, जीव द्रव्य का कोई जनक आज तक हुआ ही नहीं। 9. कण-कण स्वतंत्र है, परमाणु-परमाणु स्वतंत्र है। इस सिद्धांत को बोलने स्वरूप देशना विमर्श (115 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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