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मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..."कल्प(बारसा)सूत्रम्" मूलम्
['कल्प-बारसासूत्र - मूल] इस प्रकाशन की विकास-गाथा पूज्यपाद आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) के संशोधन एवं संपादन से सन १९१४ (विक्रम संवत १९७०) में इस प्रत का संशोधन एवं संपादन करके प्रकाशन करवाया | "दशाश्रस्कन्ध" नामक छेदसूत्र, जो की ३४ वा आगमसूत्र है, उस सूत्र का आठवाँ अध्ययन, जिसे हम "कल्पसूत्र" याने "बारसासूत्र" के नामसे जानते है, जिस सूत्र का स्वयम् अपना एक स्थान जैन जगतमे रहा है। इसका मुद्रण "देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार" से हुआ|
• हमारा ये प्रयास क्यों? : आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा 'प्रत' (पोथी) स्वरुपमे प्रकाशित साहित्य के प्रति लोगो का अधिक आदर देखकर हमने प्रताकारमे मुद्रित ४५ आगम [+ २ वैकल्पिक आगम] के Net Publications के साथ-साथ ये कल्पसूत्र भी पुन:संपादित कर दिया। अलबत हमे एक बात का अवश्य स्वीकार करना पडेगा कि काल्प(बारसा)सूत्र के बहोत प्रकाशन हए है, एक-दो प्रकाशन को छोड़कर बाकी सभी प्रकाशन प्राय: सचित्र प्रकाशित हुए है |
एक स्पेशियल फोरमेट बनवा कर हमने बीचमे पूज्यश्री संपादित पृष्ठो को ज्यों के त्यों रख दिए, ऊपर शीर्षस्थानमे इस स्प्प्तर का नाम और साथमे मूलसूत्र या गाथाजो जहां प्राप्त है उसके क्रमांक लिख दिए, ताँकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा सूत्र या गाथा चल रहे है उसका सरलता से ज्ञान हो शके, बायीं तरफ इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे गुजराती, इंग्लिश आदि प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके | हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढ़ते हुए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रो के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस दिए है और जहां गाथा है वहाँ ||-|| ऐसी दो लाइन खींची है।
हमने एक अनुक्रमणिका भी बनायी है, जहां पर कल्पसूत्र के मुख्य तीन विभाग देकर प्रथम विभाग अन्तर्गत् विविध विषयो को नाम-निर्देश सह प्रदर्शित कर दिये है। और साथमें इस सम्पादन के पृष्ठांक भी दे दिए है, जिससे अभ्यासक व्यक्ति अपने चहिते अध्ययन या विषय तक आसानी से पहुँच शकता है | अनेक पृष्ठो के नीचे विशिष्ठ फूटनोट भी लिखी है।
अभी तो ये jain_e_library.org का 'इंटरनेट पब्लिकेशन' है, क्योंकि विश्वभरमें अनेक लोगो तक पहुँचने का यहीं सरल, सस्ता और आधुनिक रास्ता है, आगे जाकर ईसि को मुद्रण करवाने की हमारी मनीषा है।
......मुनि दीपरत्नसागर......
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