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________________ साधु सबको सन्तोष देने वाला हित और परिमित वचन का रोगसम्बन्धी प्रश्न. . (दोहा)—प्रश्न करे रोगी तणो, जैसे सुर में आय । सुर फुणि तत्त्व विचार के, तैसा रोग कहाय ॥१८॥ अपने" स्वर में अपना, तत्त्व चले तिण वार । तो रोगी के पिण्ड में, रोग एक निर्धार ॥१८५॥ सुर में दूजा सुर तणो, प्रश्न करत तत होय । मिश्र भाव से रोग की, उत्पत्ति तस जोय ॥१८६॥ ... अर्थ-यदि कोई पाकर रोगी को क्या रोग है ऐसा प्रश्न करे तो स्वर में तत्त्व का विचार करके जैसा स्वर और तत्त्व हो वैसा रोग कहना चाहिए-१८४ (१) यदि अपने स्वर में अपना तत्त्व चलता हो तो रोगी को एक रोग है, ऐसा कहना चाहिए । जैसे चंद्र स्वर में यदि पृथ्वी तत्त्व चलता हो तो कह देना चाहिए कि रोगी को एक रोग है और वह कफ के प्रकोप से हुआ है। - यदि सूर्य स्वर में अग्नि तत्त्व चलता हो तो कह देना चाहिए कि रोगी पित्त जनित एक रोग से पीड़ित है । यदि स्वर में वायु तत्त्व चलता हो तो कह देना चाहिये कि रोगी वायु जनित एक रोग से पीड़ित है-१८५ (२)यदि दूसरे स्वर में दूसरा तत्त्व (विपरीत तत्त्व) चलता हो उस समय कोई रोगी के रोग सम्बन्धी प्राकर प्रश्न पूछे तो उत्तर देना चाहिए कि मिश्र भाव से रोग है। अर्थात यदि चंद्र स्वर में अग्नि तत्त्व चलता हो तो कहना चाहिये कि कफ और पित्त मिश्रित रोग है। यदि चंद्र स्वर में वायु तत्त्व चलता हो तो कह देना चाहिए कि कफ और वायु मिश्रित रोग है । यदि सूर्य स्वर में पृथ्वी तत्त्व अथवा जल तत्त्व चलते हों तो कह देना चाहिए कि कफ और ४१-पूर्णे वरुणे प्रविशति यदि वामा जायते क्वचित्पुण्यैः । . सिद्धयत्यचिन्तितान्यपि कार्याण्यारभ्यमाणापि ॥५१॥ अर्थ-जल तत्त्व का पवन पूर्ण होकर प्रवेश करते हुए यदि किसी पुण्योदय से बांई नाड़ी चले तो अनचिन्ते कार्य के प्रारंभ करने में भी सिद्धि होती है । अर्थात् महाशुभ तथा कल्याणकारी है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004078
Book TitleSwaroday Vignan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1973
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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