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________________ प्रमादपूर्वक किया हुआ अच्छा कार्य भी हिसा ही है। नासा तेज कान्ति तन में अति वाधे । जो निश्चल चित्त ध्यान आराधे ॥ अल्पाहार तन होय निरोग । दिन-दिन वाधे अधिकोपयोग ॥ १०२ ॥ अग्रभाग हग धरी । अथवा दोऊ संपुट करि ॥ हिये कमल नवपद? जो ध्यावे । ताकुं सहज ध्यान गति आवे ।। १०३ ।। माया बीज प्रणव धरि आद । वररण बीज गुरण जाने नाद || चढ़ता वरण करे थिर स्वास । लख धुर नाद तरणो परकास ॥ १०४ ॥ प्राणायाम ध्यान विस्तार । कहतां सुरगुरु न लहे पार ॥ ताते नाम मात्र ए कह्या । गुरुमुख जान अधिक जे रह्या ।। १०५ ॥ प्राणायाम भूमि दस जानो । प्रथम स्वरोदय तिहा पिछानो || स्वर प्रकाश प्रथम जो जाने । पंच तत्त्व फुनि तिहा पिछानो ।। १०६ ॥ कहुं अधिक अब तास विचार । सुनो अधिक चित्त थिरता धार ॥ स्वर में तत्त्व लखे जब कोई । ताकुं सिद्ध स्वरोदय होई ॥ १०७ ॥ अर्थ - श्री जिनेश्वर प्रभु की वाणी को अपने हृदय में श्रद्धा पूर्वक धारण करके जो शुद्ध ध्यान के अनुभव रस का प्रास्वादन करता है सो जोगी इस जगत में कोई विरला ही होता है । ऐसे योगी के रोग, शोक और भय सर्वथा नष्ट हो जाते हैं - १०१ जो शांत और स्थिर चित्त से ध्यान का आराधन करते हैं उनके शरीर में दिन प्रतिदिन और कान्ति की प्रति वृद्धि होती है । अल्पाहार सेवन से निरोग होता है तथा ध्यान के प्रभाव से दिन प्रतिदिन आत्मा में ज्ञान और दर्शन उपयोग की अधिकाधिक वृद्धि होती जाती है - १०२ जो मनुष्य नासा के अग्रभाग पर दृष्टि रखकर अथवा दोनों आंखें बन्द कर के (मूलासन अथवा पद्मासन में बैठकर हृदय में नवपद का एकाग्र चित्त से ध्यान करता है उसे सहज ही ध्यान की सिद्धि प्राप्त हो जाती हैं - १०३ मायाबीज (हीं) प्रणव (ॐ) को आदि में रखकर वर्ण, बीज, गुण, तथा नाद का ज्ञान करे । चढ़ते वर्ण में श्वास को स्थिर करे और नाद के प्रकाश को देखे – १०४ • ३२ – हृदय में अष्टदल कमल की स्थापना कर मध्य में ॐ ह्रीं पूर्वक अरिहंत पद की स्थापना करे । अष्टकमलदलों में चारों दिशाओं में क्रमशः ॐ ह्रीं पूर्वक सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु पद को स्थापन करे । चारो विदिशाओं में ॐ ह्रीं पूर्वक दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप पद की स्थापना करे । सब पदों की स्थापना ॐ ह्रीं पूर्वक करके इन नवपदों का एकाग्र चित्त से ध्यान करे | नवपदमय सिद्धचक्र के दो यहां दिये गये चित्रों से देखें । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004078
Book TitleSwaroday Vignan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1973
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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