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________________ - आत्मा ही मेरा सर्वश्रेष्ठ बालम्बन है। अनहद ध्वनी उत्पन्न होती है और उससे स्थिर ज्योति के प्रकाश का अनुमा प्राप्त होता है-७१ समाधि (चौपाई)-अनहद अधिष्टायक जो देव । थिर चित्त देख करे तसु सेव ॥ ऋद्धि अनेक प्रकार दिखावे । अद्भुत रूप दृष्ट तस आवे ॥७२॥ ऋद्धि देख नवि चित्त चलावे । ज्ञान समाधि ते नर पावे ॥ वेद भेद समाधि कहिये । गुरु गम लक्ष तेह नो लहिये ॥७३॥ अर्थ -अनहद के अधिष्टायक जो देव हैं वे ऐसे योगी को स्थिर चित्त देख १८-समाधि :-ध्येय वस्तु के स्वरूप को प्राप्त हुआ मन जब अपने ध्यान स्वरूप का परित्याग करके और संकल्प विकल्प से रहित होकर केवल ध्येय वस्तु के स्वरूप में स्थित होता है तब उसकी उस अवस्था को योगी जन समाधि कहते हैं यह दो प्रकार की है सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात । १-सम्प्रज्ञात समाधि-सविकल्प । जिसमें ज्ञाता और ज्ञानादि के विकल्प लय की अनपेक्षा हो और अद्वितीय ब्रह्म के आकार की आकारता हो, वह चित्तवृत्ति का अवस्थान। इसमें चित्त की वृत्ति को ब्रह्म में लय कर देना होता है और इसका कुछ विचार नहीं रहता कि ज्ञाता और ज्ञान में भेद है या नहीं। इसमें किसी न किसी एक अवलम्बन की आवश्यकता रहती है। इसमें प्रज्ञा के संस्कार भी रह जाते हैं । यह समाधि चित्त की एकाग्र अवस्था में होती है। . २-असम्प्रज्ञात समाधि-निर्विकल्प । बुद्धि का-वृत्ति का अद्वितीय ब्रह्म में उसी का आकार बनकर एक भाव से अवस्थान होना। इसमें ज्ञाता-ज्ञानादि के भेद की कोई अपेक्षा नहीं रहती। जैसे नमक जल में मिलकर जल रूप ही हो जाता है उसी प्रकार ब्रह्म में चित्तवृत्ति लीन हो जाने पर ब्रह्म के अतिरिक्त अन्य कुछ भी दिखलाई नहीं देता अर्थात् अपनी आत्मा -- का शुद्ध रूप में साक्षात्कार हो जाता है। इसमें कोई अवलम्बन नहीं रहता । 'सब वृत्तियां विलीन हो जाती है। यह चित्त की निरुद्धावस्था में होती है। . . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004078
Book TitleSwaroday Vignan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1973
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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