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________________ HASRH सम्यग्दर्शन से हीन वन्दनीय नहीं हो सकता। प्रात्मा का विकास लक्ष्य तथा जागति .. ध्यान के बिना पूर्ण रूप से आत्मा का विकास नहीं होता। भूतकाल में • जितने भी महान पुरुष हुए हैं वे सब ध्यान ही के बल आगे बढ़े हैं। तथा अब भी इस ध्यानं बल द्वारा ही आगे बढ़ सकते हैं । ध्यान मार्ग में प्रवेश करने वाले मनुष्य को पहले अपना ध्येय निश्चित करना चाहिये । उसको निश्चित करने के बाद यह निश्चय करना चाहिए कि, इस मार्ग में चलने के लिये मुझमें कितनी योग्यता है। फिर ध्यान की विधि जानकर उसका अभ्यास करना चाहिये। - हमें जो स्थिति प्राप्त करना है उसका दृश्य मानसिक स्थिति के सामने बारबार विचार बल से खड़ा करना चाहिए तथा उस एक ही विचार को ध्यान के किसी भी समय में भूलना नहीं चाहिये। ___ अपना ध्येय प्रात्मा के शुद्ध स्वरूप को प्राप्त करना ही है। प्रात्मा के ऊपर आवरण रूप जो आठ कर्म हैं, उनके नाश होने से आत्मा के आठ महान् गुण प्रकट होते हैं । आत्मा ही अनन्त है क्योंकि इसका अन्त अर्थात् नाश नहीं होता है उस अनन्त का ज्ञान, दर्शन, आनन्द, शक्ति, सुख, जीवन स्वरूप और अनुभव, यही प्राप्त करने योग्य ध्येय है। इससे यह निश्चय हुआ कि अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्द प्रानन्द, अनन्त वीर्य, अव्याबाध सुख, सादि-अनन्त जीवन, अरूपी दशा और अगुरुलघु [व्यापक स्थिति]-यह आत्मा का पूर्ण विकास है उसी के लिये ही मैं प्रयत्न करता हूं। मेरी प्रवृत्तियां मेरे इस आत्म-विकास के लिए ही है। भूगर्भ - लक्ष्य जागृत करने के बाद भूगर्भ उत्पन्न करना चाहिये । एक ही विचार को वार-बार मनन करने से मन के ऊपर उसका मजबूत असर होता है। मन धीरे-धीरे उसी विचार के अनुरूप हो जाता है अन्त में अभी आस-पास भी वैसा ही वातावरण उत्पन्न करता है । उस वातावरण में आनेवाले अणु भी उससे अच्छी तरह सुवासित होते हैं । सजातीय परमाणु भी उसकी तरफ खिचकर आते हैं। विरोधी परमाणुओं को दूर करता है। इस बंधे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004078
Book TitleSwaroday Vignan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1973
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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