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________________ २९६ तपस्वी पवित्र होता है। प्रवृत्ति शांत नहीं होती । पर अपनी समग्र शक्ति इसकी प्राप्ति में लगा देनी चाहिये । एकाग्रता में ध्येय की एक आकृति पर ही अथवा एक विचार पर ही दृढ़ रहने से मन स्थिर होता है । १२-एकाग्रता प्राप्त मन की शक्ति जैसे नदी की अनेक धाराएं जुदा-जुदा हो जाने पर नदी के पूर्ण प्रवाह के मूलबल' को विभाजित कर देती हैं और बल के विभाजित हो जाने पर जल के प्रवाह में भी मंदता आ जाती है। जैसे नदी के एक प्रवाह रूप बहने से जितनी प्रबलता और वेग से कार्य हो सकता था वह जुदा-जुदा प्रवाह में बहने से नहीं हो सकता । वैसे ही एकाग्रता के एक ही प्रवाह में वहन करने वाला और उसके द्वारा मज़बूत हुआ प्रबल मन जो अल्प समय में कार्य कर सकता है वह अस्तव्यस्त अवस्था में कभी भी नहीं कर सकता। अतः एकाग्रता की महान उपयोगिता के लिये महापुरुषों ने विशेष आग्रह किया है। १३-प्रात्मा लय की अवस्था इस प्रकार किसी एक पदार्थ पर एकाग्रता प्राप्त करने से मन पूर्ण विजय प्राप्त करता है । अर्थात् महूर्त (४८ मिनट) तक पूर्ण एकाग्रता में मन रह जाने पर पश्चात् उस पदार्थ के विचार को छोड़ देना चाहिये और कोई भी पदार्थ के चिंतन की तरफ मन को प्रेरित किये बिना स्थिर करना चाहिये । इस अवस्था में मन किसी की आकार में परिणत नहीं होता। मन तरंग बिना सरोवर के समान शांत अवस्था में रहता है। यह अवस्था स्वल्प काल से अधिक समय नहीं रहती। जब इस अवस्था में मन शान्त होता है तब मन रूप में परिणत आत्मा मन से जुदा होकर स्वस्वरूप में रमण करता है। इस स्वल्प समय की उत्तम अवस्था को लय अवस्था कहते हैं। यह लय अवस्था अधिक समय तक रहने से आत्मज्ञान प्राप्त होता है। ___ इस प्रकार एकाग्रता का अन्तिम फल बतला कर एकाग्रता कैसे करनी चाहिये इस विषय पर कुछ विवेचन करते हैं। इसके लिये पहले आत्मश्रद्धा होनी चाहिये। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004078
Book TitleSwaroday Vignan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1973
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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