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________________ सत्य एक ही उसका अनेक तरह से वर्णन *समाथि का स्वरूप तो ठीक है; परन्तु धारणा और ध्यान न होने से समाधि में भी भ्रम होता है । परन्तु प्रथम पाद के तृतीय सूत्रानुसार अपने स्वरूप को देखना यह समाधि का यथावत् लक्षण ' बनता है। विशेष पातंजल योग दर्शन में देखो, इस जगह तो प्रक्रिया त्र दिखाई है । प्रथक्-प्रथक् प्रक्रिया होने से अनेक तरह के भ्रम उत्पन्न होते हैं । जब तक रहस्य बताने वाला यथावत् गुरु न मिले, तब तक यथावत् रहस्य प्राप्त होना कठिन है और बिना यथावत् गुरु के कर्ता का अभिप्राय भी नहीं मिलता । उस अभिप्राय के मिले बिना जिज्ञासु की शंका दूर नहीं होती जब तक शंका दूर न होगी, तब तक विश्वास न होगा, तथा बिना विश्वास के यथावत् प्रवृति नहीं होती, और बिना यथावत् प्रवृत्ति के उसका फल नहीं होता । इसलिये हमारा सज्जन पुरुषों से कथन है कि विवाद को छोड़कर बुद्धि-पूर्वक विचारकर पदार्थ में अपेक्षा- सहित वस्तु का ग्रहण करना, और एकान्त को न खींचना, तब ही कार्य की सिद्धि होगी । एकान्त का खींचना है सो ही अज्ञान अर्थात् मिथ्यात्व है; इसलिये स्याद्वाद को अंगीकार करना चाहिये । वर्तमान समय में तो स्याद्वाद मतवाले भी एकान्त खींचते हैं, क्योंकि हुण्डावसर्पिणी काल, पंचम आरा और असंयतीकी पूजा इत्यादि कारणों से दुःख गर्भित सम्प्रदाय, गच्छादिक की मारामारी में जाति कुल के जैनियों में झगड़ा कर एकान्त पक्ष को थापने लगे । जब आपस में ही स्याद्वादी नाम धरा कर एकान्त खींचने लगे हों और दूसरों को एकांत कहकर विरोध दिखावें उसमें तो कहना ही क्या ? परन्तु १५ भेद सिद्धों के होने से अनुमान होता है कि वीतराग सर्वज्ञ देव का किसी से विरोध न था और उन्होंने जैसा अपने ज्ञान में देखा वैसा ही कहा, इसलिए वे वीतराग हैं और सबकी अपेक्षा को वे अपने ज्ञान में जानते हैं । इसलिये सब पर समता भाव लाना, किसी से विरोध न करनान कराना, उसके वचन को सुन उसकी अपेक्षा से उनको समझाना, मूढ़ता को निकालकर शुद्धमार्ग पर लाना, यही सर्वज्ञों का फरमाना है, उसकी अपेक्षा को छोड़कर झगड़ा न मचाना और स्याद्वादमत के अनुसार अपने दिल को ठहराना चाहिए । सर्वज्ञों के कथन में विवाद इसीलिए नहीं है, कि वे सर्व की अपेक्षा जानते 1 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.004078
Book TitleSwaroday Vignan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1973
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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