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________________ अल्पाहारों की इन्द्रियां विषय-भोगकी ओर दौड़तीं। करे ? इस रीति के धारणा-रूप ध्यान से प्रात्म-समाधि कदापि और समाधि मन की तरंगों का न होना, और मन का आत्माकार यत्ति होकर कुछ भी दशा नहीं जानता, यह जो ८८ नम्बर के श्लोक में कहा है यह बात असम्भव है, क्योंकि आत्म-समाधि वाले को त्रिकाल का ज्ञान होता है, और अपने को अपने स्वरूप का साक्षात्कार होता है, वैसे ही परवस्तु भी अव्यवहित होने पर भी प्रतीत होती है, इसी का नाम सर्वज्ञ है। "स्वद्रष्टा" ऐसा योगदर्शन में पतंजली ऋषि भी कहते हैं, इसलिये आत्मसमाधि में स्थित को सर्वज्ञ मानो, स्व-पर का अनजान मत पहिचानो । अस्तु । अब श्रीपतंजलि ऋषि के योग'दर्शन के अनुसार धारणा, ध्यान और समाधि को दिखाता हूं। . ___ "देशबन्धश्चित्तस्य धारणा (३१) पदार्थ (देशबन्धः) नाभि आदि स्थानों में स्थिर करना, (चित्तस्य) चित्त की (धारणा)धारणा कहलाती है । भाषाचित्त को नाभि आदि स्थानों में स्थिर करने का नाम धारणा है। .. व्यासदेव का भाष्य-नाभिचक्रे हृदय-पुण्डरी के मूनि ज्योतिषि नासिकाग्ने जिह्वाग्रे इत्येवमादिषु देशेषु बाह्य वा विषये चित्तस्य वृत्तिमात्रेण बन्ध इति बन्धो धारणा ॥१॥ भाष्य का पदार्थ -(नाभिचक्रे) नाभि स्थान में (हृदयपुण्डरीके) हृदय कमल में (मूनि) कपाल मैं (ज्योतिषि) भ्रू मध्य में, (नासिकाग्रे) नासिका के अग्रभाग में (जिह्वाग्रे) जिह्वा के अग्रभाग में (इत्येवमादिषु देशेषु) इत्यादि स्थानों में (बाह्य वा विषये) अथवा बाह्य विषयों में (चित्तस्य) चित्त का (वृत्तिमात्रेण बन्धः) वृत्तियों के द्वारा स्थिर होना (इति बन्धो धारणा) यह स्थिर होना धारणा कहलाती है। भाष्य का भावार्थ-नाभि अादि अन्तर्देशों में या बाह्य देशों में वृत्ति के द्वारा जो चित्त को स्थिर किया जाता है, उसको धारणा कहते हैं। सूत्र विवेचन-वाह्य विषय का अभिप्राय यह है, कि इन्द्रियों के जो रूपादि स्थूल अर्थात् तन्मात्रा है, उनमें चित्त को लगाना भी धारणा शब्द का वाच्य है। आजकल' जो हठयोग वाले षट्चक्र-भेदन का अभ्मास किया करते हैं, वे भी इसी सूत्र के अभ्यास से करते हैं । और थियोसाफिष्ट इसी सूत्र से वाह्य विषय अर्थात् किसी बिन्दु-विशेष या वस्तु-विशेष में चित्त के लगाने का अभ्यास Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004078
Book TitleSwaroday Vignan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1973
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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