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________________ पति का भला न बोलना, अति की भली न चुप प्रति का सदा स्वाग करो। त काभला Ga दावाग ध्यान का वर्णन . ध्यान के विषय में उक्त ग्रन्थ में बीस श्लोक हैं। यहां भी हम आगे पीछे के श्लोक लिखकर मतलब दिखा देते हैं। "स्मत्येव धर्म चिन्तायां, धातुरेक: प्रपद्धते । यच्चित्ते निर्मला चिन्ता, तद्धि ध्यानं प्रचक्षते ॥ ६१॥ अश्वमेधसहस्राणि, वाजपेयशतानि च । एकस्य ध्यानयोगस्य कलां नाहन्ति षोडशीम् ॥ ६२ ॥ अर्थ-'स्मृ' धातु चिन्ता समान्य का वाचक है। सो चित्त में योगशास्त्रोक्ति प्रकार से हृदय को निर्मल करके आत्म तत्त्व का स्मरण करना ध्यान कहाता है । आगे के श्लोकों में कुल चक्रों का ध्यान कहा है सो उस ग्रंथ से देखो। अन्तिम श्लोक का अर्थ यह है कि सहस्रों अश्वमेघ, सैकड़ों वाजपेय यज्ञों का फल भी केवल एक ध्यानावस्था के फल का सोलहवां अंश (हिस्से) के समान भी नहीं है, अर्थात् यज्ञादि साधनों में भी श्रेष्ठ ध्यान योग है। समाधि का वर्णन यह समाधि उक्त ग्रन्थ में १५ श्लोकों में कही है । सो जो-जो श्लोक मुख्य दिखाने योग्य हैं, उनको लिखकर दिखाते हैं "उपाधिश्च तथा तत्त्वं, द्वयमेतदुहाहृतम् । उपाधिः प्रोच्यते वर्णस्तत्त्वमात्माभिधीयते ॥ ८१॥" अर्थ-प्रात्मा के प्रकाश होने वाले को उपाधि तथा आत्मचैतन्य को तत्त्व कहते हैं ।। उपाधि और तत्त्व ये दोनों विचार्य हैं । उपाधि प्रणव रूप वर्ण "ओं" है । तत्त्व आत्मा कहता है । "उपाधेरन्यथा ज्ञानं तत्त्व संस्थितिरन्यथा । समस्तोपाधि विध्वंसी, सदाभ्यासेन जायते ॥ ८२ ॥" अर्थ-उपाधि से यथार्थ वैषयिक अन्य ही है अर्थात् वह विपरीत वोधक । है। जैसे स्फटिक तो स्वच्छ श्वेतमात्र है, परन्तु उसमें लाल, पीला, नीला आदि रंग, उपाधि के सम्बन्ध से उसी रंग के समान होता है, वैसे ही शरीर से भिन्न निर्विकार शुद्ध आत्मा, विषय वासनाओं के संसर्ग से "अहं सुखी" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004078
Book TitleSwaroday Vignan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1973
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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