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जल के भीतर अमृत है, औषधि है । र सोलह आधारों का प्रयोजन तो उस पुस्तक से देखो, क्योंकि उस सबको लिखने से ग्रन्थ अधिक बढ़ जायेगा, इसलिये नाममात्र ही दिखाते हैं-१ पग का अंगूठा, २ मूलाधार, ३ गुह्याधार, ४ वज्रोली, ५ उड्डीयानबन्ध, ६ नाभिमण्डलाधार, ७ हृदयाधार, ८ कण्ठाधार, ६ क्षुद्रकंठाधार, १० जिह्वामूलाधार, ११ जिह्वा का अधोभागाधार, १२ अर्द्धदन्तमूलाधार, १३ नासिकाग्राधार, १४ नासिकामूलाधार, १५ भ्र मध्याधार, १६ नेत्राधार । ये सोलह आधार हैं।
दूसरी रीति के आधारों का वर्णन १ मूलाधार, २ स्वाधिष्ठान, ३ मणिपूर ४ अनाहत, ५ विशुद्ध, ६ आज्ञाचक्र, ७ बिन्दु, ८ अर्धेन्दु, ६ रोधिनी, १० नाद, ११ नादान्त, १२ 'शक्ति, १३ व्यापिका, १४ शमनी, १५ रोधिनी, १६ ध्रुवमण्डल ये १६
आधारों के नाम हैं । ब्रह्म तथा अपने में अभेद समझ कर भावना करने से सिद्धि होती है।
अब दो लक्ष्य कहने हैं-एक तो बाह्य दूसरा प्राभ्यन्तरिक है । देखने के उपयोगी भ्रू मध्य तथा नासिका इत्यादि बाह्य लक्ष्य हैं । मूलाधार चक्र, हृदयकमल इत्यादि आभ्यन्तरिक लक्ष्य हैं ।
पांच प्रकार के प्राकाश पहला श्वेतवर्ण ज्योतिरूप आकाश है, इसके भीतर रक्तवर्ण ज्योति रूप नेकाश हैं, इसके भीतर धूमवर्ण ज्योतिरूप महा आकाश है, इसके भीतर नीलवर्ण ज्योतिरूप महा तत्त्वाकाश है. इसके भीतर बिजली के वर्ण का ज्योतिरूप सूर्याकाश है । ये पांच आकाश हैं । ये ६ चक्र १थ आधार, २ लक्ष्य, ५ आकाश शरीर में हैं । इनको जो योगी नहीं पहिचानता, उसको योग सिद्धि नहीं होती। ___ इस रीति के आधार का वर्णन किया, 'गोरक्षपद्धति' का लेख भी लिख दिया है फिर दिल से विचार किया कि अनुभव से आधार-लक्ष्य-भावना का भी वर्णन करना चाहिए। अब जो-जो मुख्य प्रयोजन प्राधार लक्ष्य और भावना के हैं, उनका वर्णन करते हैं; आधार नाम उसका है कि जो आधेय
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