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________________ शरीर रूपी ब्रह्मपुरीमें सब कुछ सामाया हुआ है। मन ठहराने पर एक दृष्टान्त एक ब्राह्मण अन्न मांग कर खाता था। उसके पास में और कुछ नहीं था । वह ब्राह्मण प्रतिदिन जंगल में दिशा (पाखाना) फिरने जाता था। वहां से उठकर एक आक के वृक्ष के नीचे आकर जो कुछ पानी हाथ धोने से बचता वह आक के पेड़ के ऊपर डाल देता और उस जगह लोटा शुद्धकर आप हाथ साफ कर चला जाता था । इस रीति से पानी डालते-डालते चिरकाल हो गया। उस ब्राह्मण के एक कन्या थी। वह विवाह के योग्य हुई थी, परन्तु उस ब्राह्मण के पास इतना धन नहीं था कि अपनी पुत्री का विवाह कर सकता। एक दिन उस कन्या को बड़ी हुई देखकर वह चिन्तित होता हुआ दिशा फिरने के लिए गया और उस स्थान पर विचारने लगा कि हाय ! मेरी बेटी इतनी बड़ी हो गई और मेरे पास एक पैसा नहीं, इसका विवाह किस प्रकार करूंगा ? यह विचार करते-करते अपनी गुदा को धोने लगा तो धोतेधोते जितना पानी लोटे में था वह सब गिरा दिया और वहां से उठकर जिस आक के वृक्ष के समीप सदा लोटा मांजता था, वहीं मांजने लगा। परन्तु जल न बचने से उस आक पर पानी नहीं डाला । तब उस आक के वृक्ष पर रहने वाला एक भूत, बोला, अरे विप्र ! मुझको सदा जल पिलाता था, आज क्यों न पिलाया ? उस समय ब्राह्मण बोला कि अरे भाई तू कौन है ? जब उसने जवाब दिया कि मैं इस जगह का रहने वाला भूत हूं। तब ब्राह्मण बोला, मैंने तुझको इतने दिन पानी पिलाया, उसका फल आज तक कुछ न पाया । तब वह भूत कहने लगा, तुझे क्या चाहिए ? उस समय वह ब्राह्मण कहने लगा कि मेरी बेटी विवाह के योग्य हो गई है और मेरे पास कोई द्रव्य नहीं है, क्योंकि मैं भिक्षा मांगकर खाता हूं और भिक्षा भी उतनी ही लाता हूं, कि जितनी से मेरा पेट भरे, इसलिए मेरे पास धन एकत्र नहीं हुआ और बिना धन के कन्या का विवाह कैसे कर सकता हूं? इस चिन्ता में तुझको जल. न मिला। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004078
Book TitleSwaroday Vignan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1973
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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