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________________ प्रत्येक प्राणी अपने ही कृत कर्मों से कष्ट पाता है। [२०७ होने दे । इतने पर भी इसकी असली रीति गुरुगम से जानों, हठप्रदीपिका वाले ने पद्मासन नहीं लिखा परन्तु गोरख पद्धति में लिखा हुआ है । ४ विपरीतकरणी मुद्रा विपरीत मुद्रा करने का प्रकार यह है कि पृथ्वी पर मस्तक टेककर हाथों से सिर को थामकर मयूर आसन की तरह पैर ऊंचे करके आकाश की तरफ सतर कर देवे । इस रीति से सिर के बल अधर खड़ा होना, उसका नाम विपरीत करणी मुद्रा है । इसके करने का प्रयोजन यही है, कि चन्द्रमा ऊर्ध्व भाग में है, और सूर्य अधोभाग में है, सो जो चन्द्रमा से अमृत भरता है वह सूर्य में पड़कर भस्म हो जाता है । इसलिये विपरीत - मुद्रा करने से चन्द्रमा अधोभाग में हो जाता है, और सूर्य ऊर्ध्व भाग में हो जाता है । सूर्य को अमृत न मिलने से सूर्य निर्बल होकर इड़ा - पिंगला को जोर नहीं दे सकता । जो इसका अभ्यास करे वह पहले दिन एक क्षण, दूसरे दिन दो क्षरण, इसी प्रकार से प्रतिदिन बढ़ाता चला जाय । जब एक पहर की मुद्रा होने लगे तब आगे अभ्यास न बढ़ावे । इसके कारण से क्षुधा बहुत लगती है । जो कम खाने वाला है, यदि वह इस क्रिया को करता है, तो कम खाने से उसके शरीर को यह मुद्रा जला देगी । इसलिए इससे कुछ प्रयोजन सिद्धि नहीं होती । न मालूम इन लोगों ने लिखकर क्यों इसकी इतनी महिमा की है ? खेचरी मुद्रा का कथन प्रथम खेचरी हो जाने की विधि लिखते हैं, इसके बाद इसके गुरणादि और करने की विधि लिखेंगे । सो इसकी पहली विधि यह है कि पहले जिह्वा को होठों के बाहर निकाले, और दोनों हाथों के अंगूठों और तर्जनियों से पकड़कर शनैः शनैः बाहर को खींचे, तथा गौ के थनों से जैसे दूध निकालते हैं उसी रीति से दोनों हाथों से खींचे, वह बढ़ते-बढ़ते इतनी बढ़ जाय कि नाक पर होकर भृकुटी के मध्य में जा लगे । जब इस तरह का अभ्यास हो जाय तब उसका छेदन –सोधन किया जाता है । वह दिखाते हैं कि जैसे थूहर के पत्ते की धार तीक्ष्ण होती है, इस तरह का चिकना, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004078
Book TitleSwaroday Vignan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1973
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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