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________________ जो श्रेयस्कर है उसी का आचरण करो । हाल न कहेगा, गुरु की बताई हुई रीति को समझकर आत्मार्थी बनेगा तीसरा - परिषह अर्थात् भूख, प्यास, निन्दा, स्तुति सुनकर सहन करे, कहने वाले को शापादि न दे; आलसी, क्रोधी, कपटी, लोभी, अहंकारी न हो । जितेन्द्रिय हो । क्योंकि जिसकी इन्द्रियां चपल होंगी वह योग में प्रवृत्त न हो सकेगा, योगमार्ग का अभिलाषी गुरु आज्ञाकारी, आत्मार्थी और मोक्षाभिलाषी हो, परिश्रम से थकने वाला न हो। इत्यादि ऊपर कथन किए हुए गुण जिसमें हों उसे योग का अधिकारी समझना चाहिए। और वही योग साधन करने के लिए पात्र है । हठयोग के साधक के लिए श्राहार विधि क्योंकि अधिक खाने - योगी आहार इस प्रकार करे कि जो न न्यून हो और न अत्यन्त अधिक हो । न्यूनाधिक हो जाने से साधन ठीक नहीं बनता । से तो प्रमाद वश होकर परिश्रम न कर सकेगा । इसलिए शास्त्रानुसार आहार को अंगीकार करे । जितनी उसकी भूख हो— मुझे इतना प्रहार चाहिए, ऐसा अनुमान करे ओर अनुमित आहार के चार भाग करे। उन की दृष्टि से हम ऐसा कह सकते हैं कि जब पुरुष की चंद्र नाड़ी चलती हो और पुरुष में सूर्य प्रधान गुरणों का प्रभाव चंद्र नाड़ी के प्रभाव से अमुक अंशों में हल्के (Mild) हो जाते हैं परन्तु जब सूर्य नाड़ी चालू होती है तब उसे पूर्ण बल मिलने से वह अधिक उग्र [Aggressive Form] स्वरूप धारण करता है । तथा बराबर इसी प्रकार की स्त्री की नाड़ियों की परिस्थिति है । जब स्त्री की चन्द्र नाड़ी चलती हो तब ज्ञात करेंगे कि उस समय स्त्री में स्त्रीत्व के गुण पूर्ण अवस्था में विद्यमान हैं और जब उसकी सूर्य नाड़ी चालू हो तब ज्ञात करेंगे कि उसके स्त्री सुलभ गुरण कुछ-कुछ मंद अवस्था में हैं । स्वर विज्ञानियों ने इन्हीं बातों के आधार पर स्त्री पुरुषों के लिए करने योग्य बहुत कार्यों का निश्चय किया हुआ है । जैसा कि इच्छानुकूल पुत्र अथवा पुत्री उत्पन्न करना । गर्भ धारण न करना आदि । इस संक्षिप्त आलोचना का खयाल पाठकों को अवश्य ध्यान में आया ही होगा । ऐसी मैं आशा रखता हूं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004078
Book TitleSwaroday Vignan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1973
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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