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वही है जो कभी प्रमाद न कर
वरण करो। हम कहाँ तक वर्णन करें, कहने और सुनने मात्र से श्रुत ज्ञान का कभी पार नहीं पा सकते – ३६
मैं मेरा इस जीव को, बन्धन मोटा जाना ।
मैं मेरा जाकुं नहीं, सो ही मोक्ष पिछान || ४०० ॥
अर्थ- मैं और मेरे पन का ममत्व भाव ही इस जीव को बन्धन का सबसे बड़ा कारण है । जिसमें मैं और मेरे पन का ममत्व भाव मिट गया है ऐसे निर्मोही ( मोहनीय कर्म से रहित ) ने ही मोक्ष को पहिचाना है – ४०० मैं मेरा इह भाव थी, बंध राग अरु रोष ।
राग रोष जौलों हिए, तौलों मिटे न दोष ॥४०१ ॥
अर्थ — मैं और मेरे इस भाव से राग और द्वेष का बन्ध होता है । जब तक मन में राग और द्वेष है तब तक दोष नहीं मिट सकते - ४०१ राग द्वेष जाकुं नहीं, ताकुं काल न खाय ।
काल जीत जग में रहे, मोटा बिरुद धराय ॥ ४०२ ॥
अर्थ — जिसमें राग द्व ेष नहीं है, उसे काल नहीं खा सकता अर्थात् वह जन्म और मृत्यु से रहित होकर अजर अमर हो जाता है सर्वथा " दोष रहित होकर बहुत बड़ी पदवी पाकर जगत में वास करता है - ४०२
७१ - यह जीवात्मा राग द्वेष को जीतकर चार घातिया कर्मों का क्षयकर केवलज्ञान पाता है, जीवन मुक्त हो जाता है । उस समय इसके अठारह दोष सर्वथा नाश हो जाते हैं । मोहनीय, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय ये चार घातिया कर्म हैं । ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय से 'अज्ञान' दोष का नाश होता है । दर्शनावरणीयकर्म के नाश से 'निद्रा' दोष नाश होता है । अन्तराय कर्म के नाश होने से दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय, वीर्या राय इन पांच दोषों का नाश हो जाता है । तथा मोहनीय कर्म के नाश होने से मिथ्यात्व अविरत, काम, राग, द्व ेष, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, दुर्गंच्छा; ये ग्यारह दोष नाश हो जाते हैं। कुल मिलाकर अठारह दोषों से रहित श्री अरिहंत प्रभु के सिवाय अन्य कोई नहीं होता । उपर्युक्त लक्षण युक्त समाधि को प्राप्त करने से ही वीतराग भाव उत्पन्न होकर यह जीव मोक्ष प्राप्ति कर
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