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________________ - १] सच्चे साधक जीवनकी आशा और मृत्यु भयसे सर्वथा मुक्त रहते हैं। तू सहु में सहु थी सदा-न्यारा अलख सरूप। . . अकथ कथा तेरी महा, चिदानन्द चिद रूप ॥३८६।। जनम मरण जहां है नहीं, ईति भीति लवलेश। नहीं सिर आन नरिंद की, सो ही अपना देश ।।३६०॥ अर्थ-हे जीव ! न तू जन्म लेता है न मरता है, न छोटा है न बड़ा है, तुम में न कोई वर्ण है न जात-पात है, तू न राजा है न रंक है, न साधु है न वेष है, तू सब में है और सबसे न्यारा अलख स्वरूप भी है, तेरा स्वरूप कोई भी वर्णन करने में समर्थ नहीं है, तू तो अनन्त आनन्दमय तथा शुद्ध स्वरूप है, जहां पर न जन्म है न मौत है, जहां पर किंचित मात्र भी न भय है न कष्ट है, जहां पर न किसी राजा के शासन का भय है; ऐसे दुःख, भय तथा परतन्त्रता रहित जो अनन्त आनन्द का स्थान मोक्ष है वही तेरा अपना देश है । हे जीव ! इस बात को तू सदा-हर समय अपने लक्ष में रख, इस बात को भूल मत-३८७ से ३६० विनाशिक पुद्गल दशा, अविनाशी तू आप। आपा आप विचारतां, मिटे पुण्य अरु पाप ॥३६१॥ . बेड़ी लोह कनकमयी, पाप पुण्य युग जान । - दोऊ थी न्यारा सदा, निज स्वरूप पिछान ॥३६२॥ अर्थ-जीवात्मा अविनाशी है तथा कर्म मल रूप पुद्गल जो आत्मा से संलग्न है वह नाशवान है । इसलिए अपने शुद्ध स्वरूप का विचार करने से पाप और पुण्य कर्मों का नाश होता है । पुण्य को सोने की बेड़ी तथा पाप को लोहे की बेड़ी जानकर अपने आपको सदा इनसे भिन्न-न्यारा समझ कर निजस्वरूप को पहचानो-३६१-३६२ जुगल गति होय पुण्य सुं, इतर पाप सुं होय। चारों गति सुं निवारिये, तब पंचम गति होय ॥३६३।। पंचम गति बिन जीव को, सुख तिहु लोक मंझार । चिदानन्द नवि जानजो, यह मोटो निरधार ॥३६४॥ अर्थ-चार गतियों में से देव और मनुष्य ये दो गतियां पुण्य के उदय से Janहोती हैं। तथा नियंच और नरक ये दोनों गलियां पाप के उदय से होती हैं ay.org
SR No.004078
Book TitleSwaroday Vignan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1973
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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