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________________ ' इन्द्रियों से प्राप्त होने वाला सुख, सच्चा सुख नहीं अपितु दु:ख ही है। " अंगड़ाई भी आती ही तो अग्नि तत्त्व में पवन तत्त्व है। ५प्यास भी लगती ही तो अग्नितत्त्व में है ऐसे ही सब तत्त्वों का विचार बुद्धि पूर्वक हो सकता है । पृथ्वी की परकिरत यह, अन्त सबन को नास ।।१६३।। बल करना अरु धावना, उठना अरु संकोच देह बढ़े सो जानिये, वायु तत्त्व है सोच ॥१६॥ काम क्रोध मोह लोभ, मद आकाश को भाग । नभ की पांचों जानिय, नित न्यारो तु जाग ।।१६५।। पांच पचीसों एक ही, इन के सकल स्वभाव । निर्विकार तू ब्रह्म है, आप आप को पाव ।।१६६॥ अर्थ-(१) कांति, संगम (अंगड़ाई) आलस्य भूख और प्यास ये पांचों अग्नि तत्त्व में होते हैं ।१६१ (२) लहू, वीर्य, थूक, पसीना अथवा चर्बी, मूत्र ये पांचों जल तत्त्व में होते हैं । १६२ (३) चाम, हाड, नख अथवा नाड़ी, रोम और मांस ये पांचों पृथ्वी तत्त्व में होते हैं । १६३ . (४) बल करना, दौड़ना, उठना, चलना-बढ़ना, सिमटना, संकोच करना, हिलना, ये पांचों वायु तत्त्व में होते हैं । १६४ . (५) काम, क्रोध, मोह, लोभ, मद ये पांचों आकाश तत्त्व में होते हैं ।१६५ पांच तत्त्वों में एक-एक तत्त्व में पांच-पांच तत्त्व भुगतते हैं उन की प्रकृति को ऊपर लिखे कोष्टक में स्पष्टतया समझा दिया है । कुल पच्चीस तत्त्व एक ही स्वर में होते हैं । परन्तु तू तो इनसे परे निर्विकार ब्रह्मस्वरूप है अपने स्वरूप को पहचान । (रणजीत-चरणदास कृत स्वरोदय) ५१-अग्नि तत्त्व गुण तामसी, कही रजोगुण वाय । - पृथ्वी नीर सतोगुणी, नभ है स्थिर भाय ॥२१२॥ अर्थ-अग्नि तत्त्व तमोगुणी है, वायु तत्त्व रजोगुणी है, पृथ्वी तथा जल तत्त्व सतोगुणी है तथा आकाश तत्त्व स्थिर है-२१२ (चरणदास स्वरोदय) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004078
Book TitleSwaroday Vignan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1973
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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