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________________ श्रावक किराया देकर रह सकता है या नहीं ?' इस प्रश्न के उत्तर में पू.आ.म. श्री सेनसूरिजी फरमाते हैं कि - ‘यद्यपि किराया देकर उसमें रहने में दोष नहीं लगता तो भी बिना किसी विशेष कारण के उस मकान में भाड़ा देकर भी रहना उचित नहीं लगता क्योंकि देवद्रव्य के भोग आदि में निःशूकता का प्रसंग हो जाता है ।' (सेनप्रश्न, उल्लास ३ पैज २८८) पू.आ.म.श्री वि. सेनसूरिजी महाराज ने जो जगद्गुरु आ.म.श्री विजयहीरसूरि म. श्री के पट्टालंकार थे - कितनी स्पष्टता के साथ यह बात कही है । आज यह परिस्थिति जगह-जगह देखने में आती है । देवद्रव्य से बंधवाये हुए मकानों में श्रावक रहकर समय पर भाड़ा देने में आनाकानी करते हैं, उचित रीति से भी किराया बढ़ाने में टालमटोल करते हैं और देवद्रव्य की सम्पत्ति को नुकसान पहुंचता है, इस विषय में उन्हें तनिक भी खेद नहीं होता । देवद्रव्य के रक्षण की बात तो दूर, परन्तु उसके भक्षण तक की निःशूकता आ जाती है । यह कई जगह देखने में जानने में आया है । इस दृष्टि से पू.आ.म. श्री ने स्पष्टता करके बता दिया है कि 'यह उचित नहीं लगता' यह बहुत ही समुचित है । देवद्रव्य के विषय में उपयोगी कई बातें बारबार यहाँ इसीलिये कहनी पड़ रही है कि, 'सुज्ञ वाचकवर्ग के ध्यान में यह बात एकदम स्पष्ट रीति से दृढ़ता के साथ आ जावे कि देवद्रव्य की रक्षा के लिए तथा उसके भक्षण का दोष न लग जावे इसके लिए 'सेनप्रश्न' जैसे ग्रन्थ में कितना जोर दिया गया है ।' __ अभी कई स्थानों पर गुरुपूजन का द्रव्य वैयावच्च में ले जाने की प्रवृत्ति बढ़ रही है । परन्तु सही तौर पर गुरुपूजन का द्रव्य देवद्रव्य ही गिना जाता है ! इस बात की स्पष्टता करना यहाँ प्रासंगिक मानकर उस सम्बन्ध में पू. पाद जगद्गुरु तपागच्छाधिपति आचार्य म. श्री हीरसूरीश्वरजी म. श्री को पूछे गये प्रश्नों के उत्तर रूप 'हीर प्रश्न' नामक सुप्रसिद्ध ग्रन्थ में से प्रमाण प्रस्तुत किये जा रहे है :__ 'हीर प्रश्न के तीसरे प्रकाश में पू. पं. नागर्षिगणि के तीन प्रश्न इस प्रकार हैं - (१) गुरु पूजा सम्बन्धी स्वर्ण आदि द्रव्य गुरुद्रव्य कहा जाय या नहीं ? (२) पहले इस प्रकार की गुरुपूजा का विधान था या नहीं ? (३) इस द्रव्य का उपयोग किस में किया जाय ? यह बताने की कृपा करें ।' उक्त प्रश्नों का उत्तर देते हुए पू.आ.म. जगद्गुरु विजय होरसूरीश्वरजी म. श्री | धर्मद्रव्य का संचालन कैसे करे १३५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004076
Book TitleDharmdravya ka Sanchalan Kaise kare
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdhwaj Parivar
PublisherDharmdhwaj Parivar
Publication Year2012
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size5 MB
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