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वर्जन किया हुआ है, वह निःशूकत्व न आ जाय, इसके लिए है । साथ ही जैन शासन में साधु को भी देवद्रव्य के विनाश में दुर्लभ बोधिता और देवद्रव्य के रक्षण का उपदेश देने में उपेक्षा करने से भवभ्रमण बताया है । अतः सुज्ञ श्रावकों को भी देवद्रव्य से व्यापार न करना ही युक्तियुक्त है । क्योंकि किसी समय भी प्रमाद आदि से उसका उपभोग न होना चाहिए । देवद्रव्य को अच्छे स्थान पर रखना, उसकी प्रतिदिन सार सम्भाल करनी, महानिधान की तरह उसकी रक्षा करनी, इन में कोई दोष नहीं लगता, परन्तु तीर्थंकर नामकर्म के बंध का कारण होता है । जैनेतर को वैसा ज्ञान नहीं होने से निःशूकता आदि असम्भव है । अतः गहनों पर ब्याज से देने में दोष नहीं । अभी ऐसा व्यवहार चलता है ।'
(सेनप्रश्न : पुस्तक : पेज १११) इस से स्पष्ट है कि, देवद्रव्य का उपयोग श्रावक के लिए व्यापारादि के हेतु ब्याज से लेने में भी दोष है । तो फिर देवद्रव्य से बंधवाये गये मकान, दुकान या चाली में श्रावक कैसे रह सकते हैं ? निःशूकता दोष लगने के साथ ही, उसके भक्षण का, अल्पभाड़ा देकर या विलम्ब से भाड़ा देकर उसके विनाश के दोष की बहुत सम्भावना रहती है । 'सेनप्रश्न' में स्पष्ट बताया है कि 'साधु भी यदि देवद्रव्य के रक्षण का उपदेश न करे या उसकी उपेक्षा करे तो भवभ्रमण बढ़ता है ।' इसीलिए पू. पाद आचार्यादि श्रमण भगवन्त 'स्वप्नद्रव्य देवद्रव्य ही है' उसका विनाश होता हो तो अवश्य उसका प्रतिकार करने के लिए दृढतापूर्वक उपदेश करते हैं ।
देवद्रव्य की रक्षा करने से तो तीर्थंकर नामकर्म के बंध का कारण बनता है अर्थात देवद्रव्य जहां साधारण में ले जाया जाता हो वहां श्री चतुर्विध संघ को, जिनाज्ञारसिक संघ को उसका प्रतीकार करना चाहिए । यह उसका धर्म है, कर्तव्य है, यह श्री जिनेश्वर भगवन्त की आज्ञा की आराधना है, यह पू. आ.म. श्री विजयसेनसूरीश्वरजी महाराजश्री के द्वारा फरमाये हुए उपर्युक्त विधान से स्पष्ट होता है ।
'श्रावक अपने घर मन्दिर में प्रभुजी की भक्ति के लिए प्रभुजी के आभूषण करावे, कालान्तर में गृहस्थ कारण होने पर अपने किसी प्रसंग पर उन्हें काम में ले सकता है या नहीं ? पं. श्री विनयकुशल गणि के इस प्रश्न का उत्तर देते हुए 'सेनप्रश्न' में श्री सेनसूरिजी म. श्री फरमाते हैं कि
| धर्मद्रव्य का संचालन कैसे करे ?
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