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________________ अमृतसुन्दरगणि > वाचक जयकीर्तिगणि > प्रतापसौभाग्यगणि > सुमतिविशालमुनि > समुद्रसोम के परम्परा से नाम प्राप्त होते हैं। यही नाम लेखाङ्क २३४३ में भी प्राप्त होते हैं। लेखाङ्क २३६३ - विक्रम सम्वत् १९२८ जैसलमेर महारावल श्री वैरीशालजी के विजयराज्य में बाफणा गोत्रीय संघवी गुमानचन्दजी के पौत्र प्रतापचन्द्रजी पुत्र हिम्मतरामजी आदि ने परिवार के साथ जैसलमेर के समीप अमरसागर पर श्री ऋषभदेवजी का मंदिर बनवाकर श्री जिनमहेन्द्रसूरिजी के पट्टधर श्री जिनमुक्तिसूरि से प्रतिष्ठा करवाई तथा दादाओं की चरण पादुका भी स्थापित करवाई। बनारस वाले उपाध्याय बालचन्द्रजी के शिष्य भी यहाँ आए थे तथा साहेबचन्द्रजी-मयाचन्द्रजी के प्रयत्नों से इस मंदिर का निर्माण हुआ था। संघवी प्रतापचन्द्रजी के पुत्र-पौत्रादि का विस्तार से वर्णन है। इस महोत्सव में रतलाम से चाँदमलजी सौभागमलजी की माताजी और उदयपुर के सरदारमलजी की माताजी आदि भी सम्मिलित हुई थीं। इस उद्यान में प्रतापचन्दजी की मूर्ति भी स्थापित की गई थी। लेखाङ्क २४६४ - विक्रम सम्वत् १९४४ में ब्रह्मसर ग्राम में जैसलमेर के महारावल वैरीशाल के विजयराज्य में वागरेचा गोत्रीय हीरालाल ने पार्श्वनाथ मंदिर का निर्माण करवाया और उसकी प्रतिष्ठा श्री मोहनलालजी महाराज ने की। लेखाङ्क २४७९ - सम्वत् १९५१ उपाश्रय लेख से गुरु परम्परा प्राप्त होती है, जो निम्नलिखित है:- श्री जिनचन्द्रसूरिजी > पाठक उदयतिलकगणि > पाठक अमरविजयगणि > लाभकुशलगणि > विनयहेमगणि > सुगुणप्रमोदगणि > विद्याविशालगणि > पाठक लक्ष्मीप्रधानगणि > मुत्ति कमलगणि (मोहनलाल)। लेखाङ्क २५२४ में इस परम्परा के आठों की चरण पादुकाएँ सम्वत् १९५८ में स्थापित की गई थी। लेखाङ्क २४८८ - सम्वत् १९५२ में राजगढ़ नगर में बाफणा ताराचन्द हुकमीचन्द कारित दादागुरुदेवों की पादुका की प्रतिष्ठा श्री राजेन्द्रसूरि (त्रिस्तुतिक विजयराजेन्द्रसूरि) ने करवाई। लेखाङ्क २४९२ - सम्वत् १९५२ में रतलाम नगर में महाराजा सज्जनसिंहजी के विजयराज्य में पंवार क्षत्रीय बाफणा गोत्रीय संघवी गुमानचन्दजी वंशज सेठ चाँदमलजी, रायबहादुर केसरीसिंहजी आदि ने अपने रतलाम नगर के उद्यान में चन्द्रप्रभ स्वामीजी का मंदिर बनवाकर जिनमुक्तिसूरि से प्रतिष्ठा करवाई। इस लेख में बाफणा परिवार के समस्त वंशजों और उनकी पत्नियों के नाम भी दिये गये हैं। लेखाङ्क २५६२, २५६३ - सम्वत् १९७१ में अजमेर में भड़गतिया फतहमलजी कल्याणमलजी के पुत्र कस्तूरमलजी जेवन्तमलजी की माताजी ने अपने मंदिर में दोनों दादा गुरुदेवों के चरण स्थापित करवाये थे। उसकी प्रतिष्ठा जिनचन्द्रसूरि के विजयराज्य में पंन्यास हर्षमुनि और उपाध्याय प्रेमसुखमुनि ने करवाई थी। (श्री पूज्य जिनचन्द्रसूरि के विजयराज्य का उल्लेख होने से स्पष्ट है कि १९७१ तक पंन्यास हर्षमुनिजी आदि खरतरगच्छ की मान्यता को ही प्रधानता देते थे।) XXVIII पुरोवाक् Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004075
Book TitleKhartargaccha Pratishtha Lekh Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages604
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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