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________________ वंशावली दी है। लक्ष्मणसिंह को श्री जिनराजसूरि प्रथम और श्री जिनवर्धनसूरि का परम भक्त बतलाया है । इस पार्श्वनाथ मंदिर को लक्ष्मणविहार के नाम से बतलाया है । गुरु परम्परा में जिनदत्तसूरि के सन्तानीय श्री जिनकुशलसूरि से लेकर जिनवर्धनसूरि तक की परम्परा भी दी है। श्री जिनवर्धनसूरि की पूर्व- देश की यात्रा का भी इसमें उल्लेख है। लेखाङ्क १४७ विक्रम सम्वत् १४७३ में निर्मित पार्श्वनाथ मंदिर, जैसलमेर की प्रशस्ति है। प्रशस्ति के निर्माता वाचनाचार्य श्री जयसागरगणि हैं। मंदिर के निर्माता रांका गोत्रीय जाखदेव और आसदेव की पूर्ण वंश-परम्परा देते हुए लिखा है - श्री जिनोदयसूरि के उपदेश से मूल के पुत्रों ने सम्वत् १४२५ में देवराजपुर (देराउर ) का तीर्थ यात्रा संघ निकाला था । सं. १४२७ में प्रतिष्ठा महोत्सव करवाया था । सम्वत् १४३६ में संघपति आम्बा ने शत्रुंजय गिरनार का संघ निकाला था । सम्वत् १४४९ में मोहन के पुत्र कीहट ने शत्रुंजय - गिरनार का संघ निकाला था । समस्त रांका परिवार के साथ श्रेष्ठि धन्ना, जयसिंह, नरसिंह आदि ने इस मंदिर की प्रतिष्ठा श्री जिनकुशलसूरिजी - सन्तानीय श्री जिनवर्धनसूरि से करवाई थी । लेखाङ्क २५६ महाराणा मोकल के पुत्र महाराणा कुम्भकर्ण के विजय राज्य में मेवाड़ देश में देवकुलपाटक (देलवाड़ा, एकलिंगजी के पास ) नवलखा गोत्रीय मंत्री लक्ष्मीधर के पुत्र रामदेव ने अपने समस्त परिवार के साथ नवीन मंदिर का निर्माण करवाकर अनेक बिम्बों की प्रतिष्ठाएँ करवाई थीं, जिनमें जिनवर्धनसूरि आदि आचार्यों की मूर्तियाँ ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत महत्त्व रखती हैं। देलवाड़ा का यह मंदिर कला की दृष्टि से आबू के मंदिरों की कोटि में आता । सम्वत् १४८६ से १४९४ तक इनके द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमाएँ प्राप्त होती हैं। मंत्री रामदेव आदि का परिवार पिप्पलक शाखीय श्री जिनवर्धनसूरि का उपासक था । लेखाङ्क १९२, १९५, १९६, २१२- २१५, २२५, २२७, २४६ आदि भी द्रष्टव्य हैं । लेखाङ्क २५० सम्वत् १४९३ की जिनभद्रसूरि प्रतिष्ठित सागरचन्द्राचार्य की मूर्ति उल्लेखनीय है । लेखाङ्क २५५ - सम्वत् १४९४ में पिप्पलक शाखा के श्री जिनसागरसूरिजी के आदेश से श्री विवेकहंसोपाध्याय ने विधि समुदाय सहित आबू के आदिनाथ और नेमिनाथ मंदिर की यात्रा की थी । लेखाङ्क २७४ - सम्वत् १४९६ में नाहट गोत्रीय शाह मातण ने अपने परिवार सहित करहेटक (करेड़ा) पार्श्वनाथ मंदिर में देवकुलिका का निर्माण करवाया था और उसकी प्रतिष्ठा श्री जिनवर्धनसूरि के पौत्र शिष्य श्री जिनसागरसूरि से करवाई थी । - लेखाङ्क २८८ सम्भवनाथ मंदिर, जैसलमेर की प्रशस्ति है । इस मंदिर की प्रतिष्ठा १४९७ में श्री जिनभद्रसूरि ने की थी और इस प्रशस्ति की रचना उपाध्याय श्री जयसागर के शिष्य सोमकुंजरगणि ने लिखी थी। चौपड़ा वंशीय हेमराज से लेकर उनकी कई पीढ़ियों की वंशावली इसमें प्राप्त होती है और उनके द्वारा किये हुए धार्मिक कार्य-कलापों का भी विस्तृत वर्णन है । राजवंशावली में यदुवंशीय राउल जइतसिंह से लेकर राउल लक्ष्मणसिंह और उनके पुत्र राउल वैरसिंह की वंशावली दी गई है। आचार्य - परम्परा में भी वर्धमानसूरि से प्रारम्भ कर जिनभद्रसूरि XVI पुरोवाक् Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004075
Book TitleKhartargaccha Pratishtha Lekh Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages604
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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