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________________ बहुत सारा इतिहास बदल दिया गया/बदला जा रहा है। यह इतिहास का दुर्भाग्य है कि वर्तमान में जीर्णोद्धार आदि के नाम पर गच्छ-द्वेष अथवा स्वनाम-व्यामोह के घृणित आधार पर प्राचीन शिलालेखों को खंडित किये जाने व उन प्राचीन प्रतिमाओं का उत्थापन कर नई प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित की जा रही हैं। ___ बहुत सारे शिलालेख आज भी प्रकाश में नहीं आ पाये हैं। बाबू पूरणचंदजी नाहर ने सर्वप्रथम शिलालेख संकलन का कार्य प्रारम्भ किया था। पुरातत्त्वाचार्य श्री जिनविजयजी, श्री अगरचंदजी, भंवरलालजी नाहटा, मुनि श्री कान्तिसागरजी, महोपाध्याय विनयसागरजी, श्री विजयधर्मसूरिजी, श्री पार्श्व आदि कई विद्वानों ने इस कार्य को गति दी है। मेरे दादा गुरु आचार्य प्रवर श्री जिनहरिसागरसूरिजी, म. पूज्य आचार्य श्री जिनकवीन्द्रसागरसूरिजी की शिलालेख-आलेखन की तीव्र रुचि थी। उनके द्वारा संकलित शिलालेख संग्रह हमारे भण्डार श्री जिनहरिसागरसूरि ज्ञान भण्डार, लोहावट, वर्तमान में जहाज मन्दिर में उपलब्ध है। इस संग्रह में अधिकतर शिलालेख अजीमगंज, कलकत्ता व उधर के तीर्थों, कुछ उत्तर प्रदेश के तीर्थों व मन्दिरों के हैं। यह संकलन प्रकाशित होने पर काफी नई सामग्री उपलब्ध होगी। मेरा प्रयास है कि उस संकलन का व्यवस्थित वर्गीकरण कर शीघ्र प्रकाशन किया जाय। मेरी स्वयं की अभिरुचि भी शिलालेख संग्रह की खूब रही है। पिछले सात-आठ वर्षों में जिस क्षेत्र में मेरा विहार हुआ है, वहाँ की प्रतिमाओं के शिलालेख प्रायः मैंने लिखे हैं। यह संकलन भी शीघ्र ही प्रकाशित हो सकेगा, ऐसा लक्ष्य है। इतिहासविद् महोपाध्याय श्री विनयसागरजी ने ग्रन्थों के संपादन, संकलन, अनुवाद, सर्जन आदि द्वारा जिनशासन की महती सेवा की है, विशेष रूप से खरतरगच्छ को उनकी महत्त्वपूर्ण देन रही है। खरतरगच्छ के इतिहास का सुव्यवस्थित रूप से प्रकाशन कर एक बहुत बड़ी कमी पूरी की है। तो यह ग्रन्थ उसी श्रृंखला के दूसरे भाग के रूप में प्रकाशित हो रहा है। इस ग्रन्थ में उन्होंने खरतरगच्छ से संबंधित शिलालेखों का संग्रह किया है। इस संग्रह से खरतरगच्छ की उस समय की स्थिति, उसके प्रभाव, आचार्यों के प्रति संघ की श्रद्धा, उनके विहारक्षेत्र की विशालता, अनुयायियों की विपुलता आदि का पर्याप्त बोध होता है। मैं चकित हूँ कि इस वृद्ध अवस्था में भी वे निरंतर कार्य कर रहे हैं और अवढरदानी बन कर समाज को, इतिहास को लाभान्वित कर रहे हैं। आने वाला समय उनके पुरुषार्थ के परिणाम के रूप में और कई मूल्यवान ग्रन्थों का साक्षी बनेगा, ऐसी कामना है। -आचार्य जिनकान्तिसागरसूरि शिष्य उपाध्याय मणिप्रभसागर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004075
Book TitleKhartargaccha Pratishtha Lekh Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages604
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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